________________
उपासकदशांग : एक परिशीलन मागधी को प्राकृत भाषाएँ मानते है। आचार्य भरत ने इनके साथ अर्द्धमागधी का भी उल्लेख किया है। अन्य व्याकरणकार अर्द्धमागधी व शौरसेनी को मागधी में ही सम्मिलित मानकर अलग से इसका नामोल्लेख नहीं करते हैं। अर्द्धमागधो का स्वरूप
उपासकदशांग अर्द्धमागधी भाषा का आगम है अतः यहाँ अर्द्धमागधी के स्वरूप पर विचार कर लेना आवश्यक है।
साधारण रूप से अर्द्धमागधी का अर्थ "अर्धमागध्या" अर्थात् अर्धाश मागधी से किया जाता है। आचार्य अभयदेव ने उपासकदशांगसूत्रटीका में मागधी के पूर्ण लक्षण नहीं पाये जाने के कारण इसे अर्द्धमागधी कहा है। उन्होंने लिखा है कि
"अर्धमागधी भाषा यस्यां रसौललशो मागध्यामित्यादिकम् मागधभाषा
लक्षणं परिपूर्ण नास्ति' अर्थात् जिसमें मागधी के पूर्ण लक्षण रकार, सकार के स्थान पर शकार नहीं पाये जाते हैं, उसे अर्द्धमागधी कहते हैं ।
खोस्त की सातवीं शताब्दी के ग्रंथकार जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूर्णि में मगधदेश के अ(श में प्रयुक्त होने के कारण इसे अर्द्धमागधी बताया है। यहीं पर कहा गया है कि मागधी व देशो शब्दों का इस भाषा में मिश्रण होने के कारण भी इसे अर्द्धमागधी कहते हैं। इन दोनों कथनों के पीछे दृष्टिकोण यह रहा है कि अर्द्धमागधी का उत्पत्ति स्थान पश्चिमी मगध व शूरसेन का मध्यवर्ती प्रदेश अयोध्या रहा था । मूलतः १. पिशेल-प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पैरा ३ २. जैन, डा० प्रेम सुमन-'प्राकृत व्याकरण शास्त्र का उद्भव व विकास'
नामक लेख, संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण व कोश की परम्परा, पृष्ठ २१८ ३. उपासकदशांगसूत्रटीका-अभयदेव, पृष्ठ ११८ ४. "मगहद्धविसयभाषानिबद्धं अद्धमागहं"
-शास्त्री, नेमिचन्द्र-अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ट ४०९ ५. "मगहद्धविसय भासाणिबद्ध अद्धमागहं अट्ठारस देसी भासाणिमयं वा अद्धमागह'
-निशीथचूणि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org