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उपासकदशांग : एक परिशीलन
मैथुन, समस्त सावध व्यापार का त्याग तथा इनका स्मरण नहीं रखने की स्थिति को पौषध सम्यकननुपालन अतिचार कहा है।' यथा
"कृतपौषधोपवासस्यास्थिरचित्ततयाऽऽहार शरीर सत्काराब्रह्मव्यापाराणामभिलषणादननुपालना पौषधस्येति, अस्यचातिचारत्व
भावतो विरतेर्बाधितत्वादिति" श्रावकप्रज्ञप्तिटीका में भी यही स्वरूप प्रतिपादित है।' अतिथिसंविभाग व्रत
अतिथि का सामान्य अर्थ जिसके आने की कोई तिथि नहीं हो, दिन या समय नहीं हो, से किया जाता है। उपासकदशांगसूत्रटीका में उचित रूप से मुनि आदि चारित्रसम्पन्न योग्यपात्रों को अन्न, वस्त्र आदि का यथाशक्ति वितरण को अतिथिसंविभाग व्रत कहा है। यह चतुर्थ शिक्षाव्रत है। उपासकदशांगसूत्रटीका में भी कहा है कि श्रावक ने अपने लिए जो आहार आदि का निर्माण किया है या अन्य साधन प्राप्त किये हैं, उनमें से एषणा समिति से युक्त निस्पह श्रमण-श्रमणियों को कल्पनीय तथा ग्राह्य आहार आदि देने के लिए विभाग करना अतिथिसंविभाग व्रत है । यथा
"यथासिद्धस्य स्वार्थे निवर्तितस्येत्यर्थः अशनादि समिति संगतत्वेन पश्चात्कर्मादिदोष परिहारेण विभजनं साधवे दावद्वारेण विभाग
करणे यथा संविभाग" श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र में निर्ग्रन्थ साधुओं को अचित्त दोष रहित अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार तथा औषधि का योग मिलने पर दान देने को अतिथिसंविभाग व्रत कहा है।५ रत्नकरण्डकश्रावकाचार में वैय्यावृत्य
१. उपासकदशांगसूत्रटीका-अभयदेव, पृष्ठ ४६ २. श्रावकप्रज्ञप्तिटीका, ३२४ ३. उपासकदशांगसूत्रटीका-मुनिघासीलाल, पृष्ठ २६१ ४. उपासकदशांगसूत्रटीका-अभयदेव, पृ० ४६ ५. श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र-अणुव्रत, १२
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