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उपासकदशांग : एक परिशीलन विषय में चित्तवृत्ति को संकुचित करना अपरिग्रह है।' अमितगतिकृत श्रावकाचार में संतोष में कुशल गृहस्थ को मकान, खेत, धन-धान्य, दासदासी, चौपाये एवं वासन-वस्त्रादि के सर्व प्रकार के परिग्रह का त्याग करने को परिग्रहपरिमाणवत कहा गया है । सागारधर्मामृत में आशाधर ने उपासकाध्ययन का ही अनुसरण किया है।
इस प्रकार परिग्रहपरिमाण व्रत के विभिन्न मतों पर दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि पाँचवाँ अणुव्रत ग्रहण करने वाला व्यक्ति, धन, धान्य, खेत, वस्तु, द्विपद यानि दास-दासी एवं अधीनस्थ कार्यरत व्यक्ति, चतुष्पद याने गाय, बैल, भैंस, घोड़े आदि, कुविय धातु यानि ताँबा, पीतल आदि की सीमा निर्धारित कर लें। जिस प्रकार उपासकदशांगसूत्र में आनन्द श्रावक ने भी मर्यादा निश्चित की थी। उसने चार करोड़ स्वर्ण कोष में, चार करोड़ व्यापार में एवं चार करोड़ घर के वैभव में अपनी सम्पत्ति लगा रखी थी। शेष से निवृत्ति ग्रहण कर ली, जिससे वह उस सीमा के बाहर के वैभव से दोष मुक्त हो गया। इन दृश्यमान वस्तुओं के बाद श्रावक को मिथ्यात्व, भय, हास्य, शोक, रति, अरति, क्रोध, जुगुप्सा आदि आभ्यन्तर परिग्रह को भी सीमित करना होता है । अतिचार
उपासकदशांगसूत्र में कहा गया है कि इस व्रत में जो-जो मर्यादायें की गयी हैं, उनका उल्लंघन नहीं करना चाहिए। यहाँ पर इस व्रत के उल्लंघन की पाँच श्रेणियां निर्धारित की गयी है
"तयाणंतरं च णं इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा । तंजहा-खेत्तवत्थुपमाणाइक्कमे, हिरण्णसुवण्णपमाणाइक्कमे, दुपयचउपय पमाणाइक्कमे, धनधान्य पमाणाइक्कमे, कुवियपमाणाइक्कमे"
अर्थात् क्षेत्र वस्तु की मर्यादा का अतिक्रमण, हिरण्य-सुवर्ण की मर्यादा का अतिक्रमण, धन-धान्य की मर्यादा का अतिक्रमण, कुवियधातु की मर्यादा का
१. उपासकाध्ययन, श्लोक ४३२ २. अमितगतिश्रावकाचार, ६/७३ ३. सागारधर्मामृत, ४/५९
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