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उपासकदशांग : एक परिशीलन
परिग्रह कहा है ।" पुरुषार्थसिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि मोह के उदय से हुआ ममत्व परिणाम मूर्च्छा कहलाती है, और यही मूर्च्छाभाव परिग्रह है । उपासकाध्ययन में तत्त्वार्थसूत्र का ही अनुसरण किया गया है । गृहस्थधर्म में आचार्य जवाहर ने परिग्रह की व्युत्पति करते हुए कहा है " परिग्रहणं परिग्रह" अर्थात् जो ममत्व रूप से ग्रहण किया जाय, वही परिग्रह है । ४
परिग्रह के भेद -
स्थानांगसूत्र में परिग्रह के कर्म - परिग्रह, शरीर-परिग्रह और वस्तुपरिग्रह - ये तीन प्रकार के परिग्रह माने हैं । " उपासकदशांगसूत्र में अपरिग्रह को इच्छापरिमाणव्रत कहा है । यहाँ परिग्रह के सात भेद किये हैं। सोना, चाँदी, चतुष्पद, खेत, वस्तु, गाड़ी, वाहन के रूप में ये सात भेद हैं | श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र में परिग्रह के नौ प्रकार बताये हैं |
खेत्तवत्थु पमाणाइकमे, हिरणसुवण्ण पमाणाइक्कमे, दुप्पयच उपय पमाणाइक्कम्मे, धनधान्य पमाणाइक्कम्मे, कुवियपमाणइक्कमे "
अर्थात् श्रावक खेत, वस्तु, धन, धान्य, सोना, चाँदी, द्विपद, चतुष्पद एवं कुविय धातु के परिग्रह की सीमा निर्धारित कर लें । ७ उपासकाध्ययन में सोमदेवसूरि ने परिग्रह के बाह्य तथा आभ्यन्तर दो
१. परिग्रहो धर्मोपकरणवर्ज वस्तुस्वीकारः धर्मोपकरणमूर्च्छा च ।
२. पुरुषार्थं सिद्धयुपाय, १११
३. उपासकाध्ययन, ३९८
- प्रज्ञापनामलयगिरिवृत्ति २८४/४४६
४. गृहस्थधर्मं, भाग २, पृष्ठ २५७
५.
"तिविधे परिग्गहे पण्णत्ते - तंजहा - कम्म परिग्गहे, सरीर परिग्गहे, बाहिर भंड मत्त परिग्गहे " — स्थानांगसूत्र, ३ / १ / ११३
६. " तयानंतरं च णं इच्छाविहिपरिमाण करेमाणे हिरण्णसुवण्णविहि परिमाणं करेइ - चउप्पयविहि परिमाणं करेइ-खेत्त वत्थुविहिपरिमाणं करेइ-सगडविहिपरिमाणं विहि करेइ - वाहणवीहि परिमाणं करेइ"
- उवास गदसाओ, १/२१ से २७
७. आवश्यकसूत्र – मुनिघासीलाल, पृष्ठ ३२४
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