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________________ तीर्थंकर की अवधारणा : ५५ चरित्र, सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के वीरस्तव नामक षष्ठम् अध्याय में कुछ विकसित हुआ है । फिर वह कल्पसूत्र में हमें अधिक विकसित रूप में मिलता है । कल्पसूत्र की अपेक्षा भी आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १५ वें अध्याय में वर्णित महावीरचरित्र अधिक विकसित है, ऐसी डॉ० सागरमल जैन की मान्यता है । उनकी मान्यता का आधार कल्पसूत्र की अपेक्षा आचारांग के महावीरचरित्र में अधिक अलौकिक तत्त्वों का समावेश है । भगवतीसूत्र में महावीर के जोवनवृत्त से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ; उल्लिखित हैं यथा - देवानन्दा, जामालि तथा गोशालक सम्बन्धी घटनाएँ उसमें गोशालक सम्बन्धी विवरण को जैन विद्वानों ने प्रक्षिप्त एवं परवर्ती माना है । आवश्यक निर्युक्ति यद्यपि कल्पसूत्र की अपेक्षा महावीर का जीवनवृत्त विस्तार से उल्लिखित नहीं करती है, फिर भी २४ तीर्थंकरों सम्बन्धी सुव्यवस्थित जो वर्णन उसमें मिलता है, उससे ऐसा लगता है कि इसकी रचना कल्पसूत्र की अपेक्षा परवर्ती काल की है। इतना निश्चित है कि ईसा की दूसरी शताब्दी से २४ तीर्थंकरों की सुव्यवस्थित अवधारणा उपलब्ध होने लगती है । यद्यपि तीर्थंकरों के जीवनवृत्तों का विकास बाद में भी हुआ । सम्भवतः ईसा की ७वीं शताब्दी में सर्वप्रथम तीर्थंकरों के सुव्यवस्थित जीवनवृत्त लिखने के प्रयत्न किए गए, संभव है तत्सम्बन्धित कुछ अवधारणाएँ पूर्व में भी प्रचलित रही हों । आवश्यकचूर्णि (७वीं शती) महावीर और ऋषभ का विस्तृत विवरण देती है । दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में लगभग ईसा की ९वीं शताब्दी से ही हमें २४ तीर्थंकरों के सुव्यवस्थित जीवनवृत्त मिलने लगते हैं । यद्यपि इस काल के लेखकों के सामने कुछ पूर्व परम्पराएँ अवश्य रही होंगी, जिस आधार पर उन्होंने इन चरित्रों का विकास किया । वस्तुतः ईसा की दूसरी शताब्दी से ९ वीं शताब्दी के बीच का काल ही ऐसा है जिसमें २४ तीर्थंकरों सम्बन्धी अवधारणा का क्रमिक विकास हुआ । आश्चर्यजनक यह है कि बौद्ध परम्परा में २४ बुद्धों और हिन्दू परम्परा में २४ अवतारों और उनके जीवनवृत्तों को भी सुव्यवस्थित रूप इसी काल में दिया गया है जो तुलनात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । हिन्दू परम्परा में अवतार की सुव्यवस्थित अवधारणा हमें भागवतपुराण में मिलती है । इतिहासविदों ने भागवतपुराण का काल लगभग ९ वीं शताब्दी माना है, यही काल शीलांक के चउपन्नमहापुरिसचरियं एवं दिगम्बर परम्परा के महापुराण आदि का है । यह एक सुनिश्चित सत्य है कि २४ तीर्थंकरों, २४ बुद्धों और २४ अवतारों की अवधारणा कालक्रम में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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