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________________ ४६ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती, उनके अनुसार केवली भोजन ग्रहण नहीं करता है । शेष बातों में दोनों में समानता है । ९. तीर्थंकर बनने की योग्यता तीर्थंकर पद की प्राप्ति के लिए जोव को पूर्व जन्मों में विशिष्ट साधना करनी होती है । जैनधर्म में इस हेतु जिन विशिष्ट साधनाओं को आवश्यक माना गया है उनकी संख्या को लेकर जैनधर्म के सम्प्रदायों में मतभेद है। तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के आधार दिगम्बर सम्प्रदाय तीर्थकर नामकर्म उपार्जन हेतु निम्न सोलह बातों की साधना को आवश्यक मानता है१. दर्शन विशुद्धि :-वोतराग कथित तत्वों में निर्मल और दृढ़ रुचि । २. विनयसम्पन्नता :-मोक्षमार्ग और उसके साधकों के प्रति समुचित आदरभाव। ३. शीलनतानतिचार :-अहिंसा, सत्यादि मूलवत तथा उनके पालन में उपयोगी अभिग्रह आदि दूसरे नियमों का प्रमाद रहित होकर पालन करना। ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग :-तत्वविषयक ज्ञान प्राप्ति से सदैव प्रयत्नशील रहना। ५. अभीक्ष्ण संवेगः-सांसारिक भोगों से जो वास्तव में सुख के स्थान पर दुःख के ही साधन बनते हैं, डरते रहना। ६. यथाशक्ति का त्याग :-अपनी शक्त्यानुरूप आहारदान, अभयदान, ज्ञानदान आदि विवेकपूर्वक करते रहना। ७. यथाशक्ति तप :-शक्त्यानुरूप विवेकपूर्वक तप साधना करना । ८. संघ साधु समाधिकरण :-चतुर्विधसंघ और विशेषकर साधुओं को समाधि-सुख पहुँचाना अर्थात् ऐसा व्यवहार करना, जिससे उन्हें मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा न पहुंचे। ९. वैयाकृत्यकरण :-गुणीजनों अथवा ऐसे लोगों, जिन्हें सहायता की अपेक्षा है, की सेवा करना। १०-१३. चतुःभक्ति :-अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और शास्त्र इन चारों में शुद्ध निष्ठापूर्वक अनुराग रखना । १४. आवश्यकापरिहाण :-सामायिक आदि षडावश्यकों के अनुष्ठान सदैव करते रहना। १. तत्त्वार्थसूत्र, ६-२३, पृ० १६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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