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तीर्थंकर की अवधारणा : ३५
कैवल्य प्राप्त करके भी एकाकी ही रहता है। ऐसा एकाकी आत्मनिष्ठ साधक प्रत्येकबुद्ध कहा जाता है । प्रत्येकबुद्ध और तीर्थंकर दोनों को ही अपने अन्तिम भव में किसी अन्य से बोध प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती, वे स्वयं ही सम्बुद्ध होते हैं । यद्यपि जैनाचार्यों के अनुसार जहाँ तीर्थंकर को बोध हेतु किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं होती है वहाँ प्रत्येकबुद्ध को बाह्य निमित्त की आवश्यकता होती है । यद्यपि जैन कथा साहित्य में ऐसे भी उल्लेख हैं जहाँ तीर्थङ्करों को भी बाह्य निमित्त से प्रेरित होकर विरक्त होते दिखाया गया है, यथा- ऋषभ का नीलाञ्जना नामक नृतकी की मृत्यु से विरक्त होना । प्रत्येकबुद्ध किसी भी सामान्य घटना से बोध को प्राप्त कर प्रव्रजित हो जाता है। जैन परम्परा में उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित में प्रत्येकबुद्धों के उपदेश संकलित हैं, किन्तु इन ग्रन्थों में प्रत्येकबुद्ध शब्द नहीं मिलता है । प्रत्येकबुद्ध शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख स्थानांग, समवायांग और भगवती में मिलता है । यद्यपि यह तीनों ही आगम ग्रन्थ परवर्ती काल के ही माने जाते हैं । ऐसा लगता है कि जैन और बौद्ध परम्पराओं में प्रत्येकबुद्धों की अवधारणा का विकास परवर्ती काल में ही हुआ है । वस्तुतः उन विचारकों और आध्यात्मिक साधकों को जो इन परम्पराओं से सीधे रूप से जुड़े हुए नहीं थे किन्तु उन्हें स्वीकार कर लिया गया था, प्रत्येकबुद्ध कहा गया ।
बुद्धबोधित - बुद्धबोधित वे साधक हैं, जो अपने अन्तिम जन्म में भी किसी अन्य से उपदेश या बोध को प्राप्त कर प्रव्रजित होते हैं और साधना करते हैं, बुद्धबोधित कहे जाते हैं । सामान्य साधक बुद्धबोधित होते हैं ।
जैनधर्म में तीर्थंकर को गणधर, प्रत्येकबुद्ध और सामान्यकेवली से पृथक् करके एक अलौकिक पुरुष 'के रूप में ही स्वीकार किया गया है और उसकी अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया गया है। तीर्थङ्कर की इन अलोकिकताओं में पंचकल्याणक, चौंतीस अतिशय, पैंतीस वचनातिशय आदि महत्त्वपूर्ण हैं, हम अगले पृष्ठों में क्रमशः इनकी चर्चा करेंगे ।
७. तीर्थंकर को अलौकिकता
जैनपरम्परा में यद्यपि तीर्थंकर को एक मानवीय व्यक्तित्व के रूप में ही स्वीकार किया गया, फिर भी उनके जीवन के साथ क्रमशः ratfreeaाओं को जोड़ा जाता रहा है। जेनपरम्परा के प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में तीर्थंकर महावीर के जीवनवृत्त के
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