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तीर्थकर की अवधारणा : ३३
गणधर-वे साधक जो सहवर्गीय हित के संकल्प को लेकर साधना के क्षेत्र में कार्य करते हैं और अपने सहवर्गीय-हित और कल्याण के लिए प्रयत्नशील होते हैं गणधर कहे जाते हैं। समूहहित या गणकल्याण ही उनके ( गणधर के ) जीवन का आदर्श होता है।'
सामान्य केवली-जो साधक आत्म-कल्याण को ही अपना लक्ष्य बनाता है और इसी आधार पर साधना करते हुए आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करता है, वह सामान्य केवलो कहा जाता है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में उसे मुण्डकेवली भी कहते हैं।
यद्यपि आध्यात्मिक पूर्णता और सर्वज्ञता की दृष्टि से तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवलो समान ही होते हैं, किन्तु लोकहित के उद्देश्य को लेकर इन तीनों में भिन्नता होतो है। तीर्थकर लोकहित के महान् उद्देश्य से प्रेरित होता है जबकि गणधर का परहित क्षेत्र सीमित होता है और सामान्य केवली का उद्देश्य तो मात्र आत्मकल्याण होता है। ६. सामान्य केवली और प्रत्येकबुद्ध
कैवल्य को प्राप्त करने को विधि की भिन्नता के आधार पर सामान्यकेवली वर्ग के भी दो विभाग किये गये हैं
१. प्रत्येकबुद्ध २. बुद्धबोधित
प्रत्येकबुद्ध-जैनागमों में समवायांग में प्रत्येकबुद्ध शब्द का प्रयोग मिलता है। उत्तराध्ययन में वर्णित करकण्डू, दुर्मुख, नमि और नग्गति
१. चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनादिगतं तु यः । तथानुष्ठानतः सोऽपि धीमान् गणधरो भवेत् ॥ .
-योगबिन्दु, २८९ २. संविग्नो भव निर्वेदादात्मनिःसरणं तु यः। आत्मार्थ सम्प्रवृत्तोऽसो सदा स्यान्मुण्डकेवली ॥
-वहो, २९० ३. पण्हावागरणदसासू णं ससमय परसमय पण्णवय-पत्तेयबुद्ध ।
-समवायांग, ( सं० मधुकरमुनि ) ५४७
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