________________
- तोथंकर की अवधारणा : ३१ नामकर्म का उपार्जन कर सकता है और जिस भव (जन्म) में तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करता है उसके तृतीय भव में वह नियमतः तीर्थंकर बनता है । जैन मान्यता के अनुसार पूर्व भव में तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करने वाली आत्मा जब वर्तमान भव में साधना के माध्यम से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय कर्म नष्ट करके केवल-ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त करती है और साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप धर्मतीर्थ की स्थापना करती है, तब वह वस्तुतः तीर्थंकर कहलाती है।
तीर्थंकर की अवधारणा वैदिक अवतारवाद की अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है। हिन्दू धर्म में ईश्वर मानव के रूप में अवतरित होता है या जन्म लेता है । हिन्दू धर्म के दृष्टिकोण में ईश्वर मानव रूप ग्रहण कर सकता है किन्तु मानव ईश्वर नहीं बन सकता, क्योंकि वह तो उसका अंश या सेवक माना गया है। जबकि जैनधर्म के अनुसार कोई भी आत्मा अपनी आध्यात्मिक ऊँचाई पर चढ़ते हुए तीर्थंकर पद को प्राप्त कर सकती है। एक आत्मा एक ही बार तीर्थंकर पदको प्राप्त करती है और फिर मुक्त हो जाती है। तीर्थंकर बन जाने के पश्चात् वह दूसरा जन्म ग्रहण नहीं करती। जैनों के अनुसार प्रत्येक तीर्थकर एक स्वतन्त्र आत्मा होता है। जीवात्मा तीर्थंकर बनता है, किन्तु तीर्थंकर पुनः जीवात्मा नहीं बनता। वह सिद्धावस्था प्राप्त करने पर पुनः संसार में नहीं लौटता है।
तीर्थंकर की अवधारणा उत्तरण की अवधारणा है। उत्तरण में मानव तप एवं साधना के द्वारा अपनी राग-द्वेष एवं मिथ्यात्व अवस्था से ऊपर उठकर वीतराग अवस्था को प्राप्त करता है और अन्त में कर्मों से पूर्णतया मुक्त होकर सिद्ध अवस्था प्राप्त करता है। सिद्ध अवस्था प्राप्ति के बाद जीव पुनः संसार में नहीं आता। इस प्रकार उत्तारवाद में मानव अपने विकारी जीवन से ऊपर उठकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त करता है।
अतः जैनों में तीर्थंकर की जो अवधारणा है वह उत्तारवाद की अवधारणा है, अवतारवाद की अवधारणा नहीं है । तीर्थंकरत्व की प्राप्ति एक विकास-प्रक्रिया का परिणाम है, वह अवतरण नहीं है । ४. तीर्थंकर और अरिहंत
यद्यपि प्राचीन आगमों में अरिहंत और तीर्थंकर पर्यायवाची रहे हैं, १. पारद्धतित्थयरनामबंधभवाओ तदियभवये तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादो।
धवला ८३३, ३८१७५१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org