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१६ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
अतः उसमें किसी एक सामान्य तत्व को खोज पाना कठिन है । वह अनेक ऋषि-महर्षियों के द्वारा अनेक रूपों में प्रवर्तित होता रहा है उसमें यदि सामान्य तत्त्व है तो मात्र यही कि उसमें एक ईश्वर की विविध रूपों में अभिव्यक्ति को स्वीकार किया गया है। एक ईश्वर की विविध रूपों में यह अभिव्यक्ति ही अवतारवाद की अवधारणा का प्राण है। और विभिन्न अवतारों को कल्पना के माध्यम से हिन्दू धर्म के इन विविध रूपों को एक साथ जोड़ा जा सकता है। हमारी दृष्टि में अवतार की अवधारणा ही एक ऐसा सामान्य तत्व है जो हिन्दू धर्म को विविधता में अनुस्यूत एकता को प्रतिबिम्बित करता है।
हिन्दू धर्म मूलतः एक बहुदेववादी धर्म है, उसमें अनेक देवताओं की कल्पना है। इन अनेक देवताओं को एक देव के अधीन करने की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप उसमें एकेश्वरवाद की अवधारणा विकसित हुई और एकेश्वरवाद और बहुदेववाद के बीच संगति बैठाने के लिए ही अवतार की कल्पना विकसित हुई। सर्वप्रथम यह माना गया कि विभिन्न देवता उसी एक परम देव की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनका इस संसार में अपना प्रयोजन और कार्य है। यद्यपि हिन्दू धर्म के प्राचीन ग्रन्थों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनेक शताब्दियों तक यह विवाद चलता रहा कि इन विविध देवों में प्रधान देव कौन है ? कभी विष्णु को, तो कभी शिव को प्रधान देव माना गया । यद्यपि आगे चलकर शिव की अपेक्षा विष्णु का प्रभाव बढ़ा और अन्य समस्त देवों को उनकी ही अभिव्यक्ति माना गया और इस प्रकार अवतारवाद की अवधारणा अस्तित्व में आई।
तीर्थकर, बुद्ध और अवतार के समरूप ही कुछ अवधारणाएं पारसी, यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में भी मिलती है जिनकी चर्चा आगे करेंगे । ११. पारसी धर्म और देवदूत जरथुस्त्र
ईसा से कई शताब्दी पूर्व जरथुस्त्र का आविर्भाव माना जाता है। यद्यपि इनके जन्म-समय और स्थान के बारे में विद्वानों में मतभेद है ।
-गीता १०८
१. अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥
-वही २०
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