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२८० : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययय युक्त भी माना गया है।' बुद्ध नारायण के समान अच्छेद्य और अभेद्य काय वाले हैं।२ २३वें अध्याय में उनको भगवत् स्वरूप कहा गया है।' आगे चलकर बुद्ध को साक्षात् नारायण का अवतार ही माना है।
इससे स्पष्ट होता है कि ललितविस्तर के काल तक बुद्ध का नारायण के साथ तादात्म्य माना जाने लगा था। साथ ही इस काल के महायानी साहित्य पर नारायण का यथेष्ट प्रभाव भी परिलक्षित होता है । इससे ऐसा लगता है कि प्रथम शती पूर्व की रचना ललितविस्तर में ही बुद्ध को ही नारायण मान लिया गया था। सम्भव है कि इसी आधार पर वैष्णव पुराणों में आगे चलकर बुद्ध को विष्णु या नारायण का अवतार मान लिया गया हो, क्योंकि बद्ध साहित्य में वे बहत पहले से ही नारायण नाम से अभिहित किये जा चुके थे। विदित होता है कि बौद्ध ग्रन्थ मञ्जुश्रीमूलकल्प में बुद्ध को स्वयं विष्णु के चिह्नों से युक्त कहा गया है । बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तर में नसिंह और कृष्ण, लंकावतारसूत्र में राम, तथागत गुह्यक में हयग्रीव और मञ्जुश्रीमूलकल्प में वराह का उल्लेख मिलता है। यहाँ पर ये सभी विष्णु के अवतार की अपेक्षा बुद्ध के ही आविर्भाव माने गये हैं। लंकावतारसूत्र में बुद्ध के बलि के रूप में आविभर्भाव का उल्लेख मिलता है, जो सम्भवतः वामन अवतार का ही परिवर्तित रूप माना जा सकता है। १४. अवतारवाद और पैगम्बरवाद
इस्लाम धर्म में भी हिन्दू अवतारवाद की “सम्भवामि युगे युगे" को अवधारणा के तत्त्व विद्यमान हैं, क्योंकि इस्लाम धर्म भी यह मानता है कि प्रत्येक युग में पैगम्बर मानव के रूप में प्रकट होता है या जन्म लेता है । पैगम्बर के भी जन्म लेने या प्रकट होने का प्रयोजन वही होता है,
१. ललितविस्तर (मूल), पृ० १२४, १२६, १४७, १९४ २. "नारायणस्य यथा काय अच्छेद्यभेद्या" -ललितविस्तर (मूल), पृ० ३९२ ३. वही, पृ० ४७३ ४. "जातं लक्षणपुण्यतेजभरितं नारायणस्थाभवत्" -वही, प० १२४/७ ५. ललितविस्तर, पृ० ५३९, १९१; लंकावतारसूत्र, पृ० १६६; तथागतगुह्यक,
पृ० ७१; “घोररूपो महाघोरो वराहाकारसम्भवः"-मञ्जुश्रीमूलकल्प,
पृ० १५३ द्रष्टव्यः मध्यकालीन साहित्य में अवतारवाद, पृ० १२, १३ ६. लंकावतारसूत्र, पृ० २८८ : द्रष्टव्य-वही
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