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२७० : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
"अज-कुल-गत केशरी लहेरे, निज पद सिंह निहाल । तिम प्रभुभक्ति भवि लहेरे,
आतम शक्ति संभाल ।। अर्थात् जिस प्रकार भेड़ों के समूह में पला हुआ सिंह-शावक वास्तव में सिंह को देखकर अपने स्वरूप को पहचान लेता है, उसी प्रकार भक्तआत्मा भी प्रभु की भक्ति द्वारा अपने आत्मस्वरूप को पहचान लेता है। यह बोध तो स्वयं भक्त को करना है, उपास्य वहाँ निमित्त मात्र है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही परम्पराओं में क्रमशः अवतार एवं तीर्थंकर को उपास्य मानते हुए भी उनके उपासना की फलश्रुति में ही अन्तर है। हिन्दूधर्म का अवतार अपने भक्त की पीड़ा दूर करने में समर्थ है, जबकि जैनधर्म का तीर्थ कर अपने भक्त के उद्धार में पूर्णतया असमर्थ है। एक और उल्लेखनीय बात जो हमें मिलती है, वह यह है कि जहाँ हिन्दूधर्म में ईश्वर या अवतार सक्रिय है और वह भक्त को निष्क्रिय होने का उपदेश देता है। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि तू सब कुछ मुझ पर छोड़ दे मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चित्त यज्ञ कर, तू मेरी इच्छा का निमित्त मात्र बन जा।'
वहाँ जैनधर्म का तीर्थ कर स्वयं निष्क्रिय होकर भक्त को प्रेरणा देता है कि तू सक्रिय हो, तेरा उत्थान और पतन मेरे हाथ में नहीं, तेरे ही हाथ में निहित है। इस प्रकार दोनों धर्मों में अवतार एवं तीर्थकर के प्रति उपास्यभाव होते हुए भी मूलभूत दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न हैं। यद्यपि परवर्ती जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर इस प्रकार के उद्गारों को जिसमें भक्त भगवान् ( तीर्थंकर ) से दुःखों को मुक्त करने एवं सुख-शान्ति देने की याचना करता है। प्राचीनतम जैन स्तोत्र उवसग्गहर एवं मानतुङ्ग के भक्तामरस्तोत्र में तीर्थ कर के नाम को सर्व आपदाओं का शामक बतलाया गया है। चाहे यह स्तुतियाँ या उद्गार एक भावुक मन को सन्तोष देते हों, किन्तु जैनधर्म की दार्शनिक मान्यताओं की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं।
१. "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यमि मा शुचः ॥
-गीता १८/६६
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