________________
१६४ : तीर्थकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन १५. परिनिर्वाण के बाद बुद्ध की स्थिति
बौद्ध दर्शन में यह प्रश्न भी सदैव उठता रहा है कि जिन पंच स्कन्धों से व्यक्तित्व बनता है, अतः निर्वाण की अवस्था में उनका अत्यन्त निरोध होने पर क्या शेष रहता है ? तथागत ने उच्छेदवाद का स्पष्ट निरोध किया है, अतः यह माना जा सकता है कि कुछ शेष अवश्य रहता है। यद्यपि बुद्ध ने इस प्रश्न को कि "तथागत का परिनिर्वाण के बाद क्या होता है"- अव्याकृत कोटि में हो रखा था, किन्तु बौद्ध परम्परा में परिनिर्वाण के अनन्तर तथागत की अनिर्वचनीय सत्ता को स्वीकार कर लिया गया। सर्वास्तिवादी परम्परा यह मानती है कि बुद्ध का भौतिक (सम्भोग) काय तो नश्वर है किन्तु उनका धर्मरूपी शरीर अनश्वर है। महायान में बुद्ध को अपरिमित आय वाला मानकर उनको पारमाथिक सत्ता को उसी प्रकार अनिर्वचनीय मान लिया गया, जिस प्रकार उपनिषदों में ब्रह्म को अनिर्वचनीय माना गया था, साथ ही उनका तादात्म्य धर्मकाय या स्वभावकाय कर दिया और मानुषी बुद्ध को निर्माणकाय कहकर नश्वर कहा गया। १६. बौद्ध धर्म में भक्ति का स्थान __बौद्ध धर्म में भक्ति का उदय भागवत् धर्म के प्रभाव से प्रतिफलित प्रतीत होता है । पाणिनि की अष्टाध्यायी में वासुदेव की भक्ति का उल्लेख देखने को मिलता है। उसका काल ई० पू० छठी शताब्दी माना गया है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि छठी शताब्दी ई० पू० में वैष्णव धर्म का उदय हो चुका था।२ पालि निकाय के प्राचीन ग्रन्थों में “सद्धा" शब्द मिलता है, पालि निकाय के प्राचीनतम भाग का समय ई० पू० ५वीं शती माना गया है। पालि निकाय में सर्वप्रथम भक्ति शब्द का उल्लेख थेरीगाथा में मिलता है। थेरीगाथा का रचना काल विद्वानों ने ई०पू० तीसरी शताब्दी माना है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध साहित्य में "भक्ति" की अवधारणा का उदय भागवत् धर्म के उदय के समकालीन है । यहाँ यह प्रश्न उठना
१. पाणिनि अष्टाध्यायी ( ४,३,९८,४,३,९९,४,१,११४) २. भागवत सम्प्रदाय, पृ० ९२ ३. थेरीगाथा, गाथा ४१३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org