SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बद्धत्व को अवधारणा : १४५ (क) धर्मताबुद्ध, निष्यंदबुद्ध और निर्माणबुद्ध लंकावतारसूत्र में हमें त्रिकाय की अवधारणा के स्थान पर त्रिबुद्धों की अवधारणा मिलती है; उसमें निम्न तीन प्रकार के बुद्धों का उल्लेख प्राप्त होता है'-धर्मताबुद्ध, निष्यंदबुद्ध और निर्माणबुद्ध । लंकावतार की यह त्रिबुद्धों की कल्पना और त्रिकाय को अवधारणा परस्पर सम्बन्धित ही हैं। धर्मताबद्ध धर्मकाय हैं, निष्यंदबद्ध सम्भोगकाय हैं और निर्माणबुद्ध निर्माणकाय हैं। जिस प्रकार धर्मकाय, सम्भोगकाय और निर्माणकाय बुद्धत्व की तीन स्थितियाँ हैं उसी प्रकार धर्मताबुद्ध निष्यंदबुद्ध और निर्माणबुद्ध बुद्धत्व के त्रिप्रकार हैं ।२।। त्रिकायवाद की अवधारणा और त्रिशुद्धों की अवधारणा में हमें तत्त्वतः कोई विशेष अन्तर नजर नहीं आता है। डॉ. कपिलदेव पाण्डेय की मान्यता है कि बौद्ध धर्म में "जिन त्रिकायों (धर्मकाय, संभोगकाय और निर्माणकाय) का अधिक प्रचार रहा है, वे प्रारम्भ में बुद्ध के विशिष्ट रूपों से ही सम्बद्ध रहे हैं इन कार्यों को ही पूर्ववर्ती साहित्य में क्रमशः धर्मताबुद्ध, निष्यन्दबुद्ध और निर्माणबुद्ध कहा जाता था ।"३ लंकावतारसूत्र का सन्दर्भ देते हुए उन्होंने इस बात को भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि धर्मताबुद्ध से निष्यन्दबुद्ध और निष्यन्दबुद्ध से निर्माणबुद्ध उत्पन्न हुए। इस प्रकार इन तीनों में परस्पर कार्य-कारण भाव भी है। धर्मताबुद्ध ही वास्तविक बुद्ध हैं और अन्य बुद्ध उनके निर्मित रूप हैं। बुद्ध के इन तीनों रूपों की चर्चा के आधार पर हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार विष्णु के अवतार होते हैं उसी प्रकार धर्मताबुद्ध, निष्यन्दबुद्ध और निर्माणबुद्ध होते हैं। (ख) पंच तथागत या पंच ध्यानीबुद्ध पंच तथागत या पंचध्यानी बुद्धों का उल्लेख "लंकावतारसूत्र" और "सद्धर्मपुण्डरीक" में स्फुट रूप से मिलता है । "लंकावतारसूत्र" में "पंचनिर्मिता बुद्ध” का मात्र उल्लेख है।४ “सद्धर्मपुण्डरीक" में पंचबुद्धों १. उद्धत-मध्यकालीन साहित्य में अवतारवाद, पृ० २९ २. वही, पृ० २९ ३. वही, पृ० २९ ४. वही, पृ० ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy