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________________ बुद्धत्व की अवधारणा : १३९. अन्य प्राणियों को निर्वाण मार्ग की ओर अभिमुख करता है और इस अवस्था में स्वयं सभी पारमिताओं का पालन करता है एवं विशेषरूप से उपाय कौशल्य- पारमिता का अभ्यास करता है । ८. अचला इस भूमि में संकल्पशून्यता एवं विषयरहित अनिमित्त-विहारी समाधि की उपलब्धि होती है इसलिए यह भूमि अचल कही गई है, विषयों के न रहने से चित्त संकल्प शून्य हो जाता है और संकल्प शून्य होने से चित्त अविचल हो जाता है क्योंकि चित्त की चंचलता के कारण विचार एवं विषय ही होते हैं जबकि इस अवस्था में उनका पूर्णरूपेण अभाव रहता है । चित्त के संकल्पशून्य होने से इस अवस्था में तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। ९. साधुमती इस भूमि में बोधिसत्त्व के हृदय में संसार के सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव एवं शुभ भावनाओं का उदय होता है और वह प्राणियों के बोधिबीज को परिपुष्ट करता है । समाधि की विशुद्धता एवं प्रतिसंविन्मति ( विश्लेषणात्मक अनुभव करने वाली बुद्धि) इस भूमि की प्रधानता है । बोधिसत्त्व को इस अवस्था में दूसरे प्राणियों के मनोगत या आन्तरिक भावों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है । १०. धर्ममेधा जिस प्रकार अनन्त आकाश को मेघ व्याप्त कर लेता है उसी प्रकार इस भूमि में धर्माकाश को समाधि व्याप्त कर लेती है । इस भूमि में बोधिसत्त्व दिव्य भव्य शरीर प्राप्त कर कमल पर विराजमान दृष्टिगोचर होते हैं । वस्तुतः यह बुद्धत्व की पूर्ण प्राप्ति की अवस्था है । यहाँ बोधिसत्त्व बुद्ध बन जाता है | बुद्धत्व की प्राप्ति का मूलभूत आधार - बोधिचित्त का उत्पाद मानव जन्म के द्वारा ही बुद्धत्व की प्राप्ति हो सकती है परन्तु बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए बोधिचित्त का उत्पाद अनिवार्य है । परन्तु ऐसा देखने में आता है कि अधिकांशतः मनुष्य की बुद्धि शुभ कर्मों में प्रवृत्त न होकर अशुभ कर्मों में लिप्त होती है । क्योंकि सभी कालों में पुण्य को दुर्बल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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