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________________ बुद्धत्व को अवधारणा : १२३ प्रकार बोधिसत्व का हृदय करुणा से ओतप्रोत होता है। उसका कथन होता है कि जब संसार के सभी प्राणियों को दुःख एवं भय समान होते हैं तो मुझमें क्या विशेषता है कि दूसरों की रक्षा न कर स्वयं अपनी ही रक्षा करूँ ।' बोधिसत्व का हृदय तो करुणा से इतना अधीर रहता है, वे कहते हैं कि जब तक संसार के सभी प्राणी दुःख से निवृत्त नहीं हो ...जाते तब तक मैं मुक्ति नहीं चाहता । आचार्य शान्तिदेव ने: बोधिचर्याव-- द्वार में इस स्थिति का बड़े सुन्दर ढंग से चित्रण किया है-“सौगतमार्ग । के अनुष्ठान से जिस पुण्य का मैंने अर्जन किया है उसके फलस्वरूप मेरो .. यही कामना है कि प्रत्येक प्राणी के दुःख शान्त हो जायें। मुक्त पुरुषों के हृदय में जो आनन्द का समुद्र हिलोरे मारने लगता है, वही मेरे जीवन . को सुखी बनाने के लिए पर्याप्त है, रसहीन सूखे मोक्ष को लेकर मुझे ...क्या करना । : : . ..... .. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हीनयानियों का अन्तिम लक्ष्य स्वविमुक्ति की भावना होता है जबकि महायानियों का उद्देश्य विस्तीर्ण एवं परार्थ की भावना से ओतप्रोत होता है। यद्यपि जहाँ तक "बुद्ध" का प्रश्न है दोनों ही यह मानते हैं कि बुद्ध स्व-दुःख विमुक्ति के साथ लोक की दुःख-विमुक्ति के हेतु प्रयत्नशील होते हैं। हीनयान के अनुसार बुद्ध अपने जीवन पर्यन्त अपने उपदेशों के माध्यम से लोकमंगल करते हुए अन्त में निर्वाण में प्रवेश कर जाते हैं उनके परिनिर्वाण के पश्चात् मात्र उनका "धर्म" ही लोक का मार्गदर्शक होता है, जबकि महायान के अनुसार वे कोटिबन्ध तक अपनी त्रिकायों द्वारा लोक को दुःख विमुक्ति के लिये प्रयत्नशील रहते हैं और निर्वाण में प्रवेश नहीं करते हैं । हीनयान में बुद्धत्व की प्राप्ति ने लिये छः पारमिताओं को पूरा करना होता है जबकि महायान में दस पारमिताओं को पूरा करना होता है। १. “यदा मम परेषां च भयं दुःखं च न प्रियम् । तदात्मनः को विशेषो यत्तं रक्षामि नेतरम् ।।" -शिक्षासमुच्चय, पृ० १। २. "एवं सर्वमिदं कृत्वा यन्मयासादितं शुभं । तेन स्यां सर्वसत्वानां सर्वदुःखप्रशान्तिकृत् ॥"--बोधिचर्यावतार ३/६ । "मुच्यमानेषु सत्वेषु ये ते प्रामोद्यसागराः । तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारसिकेन किं ॥" --वही, ८/१०८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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