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१२२ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन
जैसा कि हमने पूर्व में देखा कि पालि साहित्य में उनके सशरीर तुषित देव लोक जाने का भी उल्लेख मिलता है जो कि उनकी अलौकिकता का परिचायक है । यद्यपि बौद्ध परम्परा में यह भी माना गया है कि जिस प्रकार पंक से उत्पन्न कमल पंक और जल से निर्लिप्त रहता है उसी प्रकार बुद्ध सांसारिक वासनाओं से निर्लिप्त रहते हैं ।' न केवल उनकी दैहिक शक्ति विशिष्ट होती है बल्कि उनकी आध्यात्मिक शक्ति भी विशिष्ट होती है ।
८. हीनयान और महायान में बुद्ध की अवधारणा का अन्तर हीनयान में व्यक्ति का चरम लक्ष्य अर्हत्-पद की प्राप्ति करना माना गया है जबकि महायान के अन्तर्गत व्यक्ति का चरम लक्ष्य बुद्धत्व को प्राप्त करना होता है । हीनयान और महायान के बुद्धत्व के आदर्शों में महत्त्वपूर्ण अन्तर पाया जाता है । अष्ट- साहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता में कहा गया है कि हीनयानियों के उद्देश्य हैं- आत्मा का दमन करना, शम उपलब्ध करना तथा अन्त में निर्वाण लाभ करना, जबकि महायानियों का उद्देश्य है - बुद्धत्व प्राप्त करना । अर्हत् अपने क्लेशों से मुक्ति पाकर अपने को कृतकृत्य समझने लगता है, उसे इस बात की कुछ भी चिन्ता नहीं होती कि संसार के कोटि-कोटि प्राणी क्लेशों से कष्ट भोग रहे हैं. जबकि महायान में बोधिसत्व का उद्देश्य होता है संसार के प्राणियों को क्लेशों से मुक्त करना । वह यह मानता है कि संसार में असंख्य प्राणी कष्ट भोग रहे हैं तो मेरे लिए निर्वाण का क्या लाभ ? वह तो संसार के सभी प्राणियों के निर्वाण लाभ के बाद ही स्वयं का निर्वाण चाहता है । लंकावतार सूत्र में इसी तरह का एक आख्यान मिलता है । इस
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तालावत्थुकता अनभावङ्कता आयति अनुप्पादधम्मा । सेय्यथापि, ब्राह्मण, उप्पलं वा पदुमं वा पुंडरीकं वा उदके जातं उदके सवढं उदका अच्चुग्गम्म तिट्ठति अनुपलित्तं उदकेन; एवमेव खो अहं, ब्राह्मण, लोके जातो लोके ias लोकं अभिभूय्य विहरामि अनुपलित्तो लोकेन । बुद्धो ति मं ब्राह्मण, धारेहीति । "
-- अंगुत्तरनिकाय भाग २, दोणसुत्तं ( ४१४।६), पृ० ४१ । १. अंगुत्तर निकाय भाग २, चतुक्कनिपात, चक्क वग्ग, पृ० ३८ ।
२. अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता ( एकादश परिवर्त्य ) -- उद्धव बौद्ध दर्शन,
पृ० १४६ ( पं० बलदेव उपाध्याय)
३. लंकावतार सूत्र ६६ / ६ ।
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