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________________ ८८ : तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार : एक अध्ययन जोड़ना चाहिए और न पर-पीड़न के साथ । वासना एवं विकारों से मुक्ति ही वास्तविक अर्थ में मुक्ति है ।" ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ ने अपने युग में एक महत्त्वपूर्ण क्रान्ति के द्वारा साधना को सहज बनाकर ज्ञान और विवेक के तत्त्व को प्रतिष्ठित किया होगा । इस प्रकार पार्श्व ने धर्म और साधना को परपीड़न और आत्म-पीड़न से मुक्त करके आत्म शोधन या निर्विकारता की साधना के साथ जोड़ने का प्रयास किया है और उनकी यही शिक्षा भारतीय संस्कृति और श्रमण परम्परा को सबसे बड़ा अवदान कहा जा सकता है । पार्श्व का धर्म एवं दर्शन 1 ऋषिभाषित ( ई० पू० तीसरी चौथी शती) में पार्श्व के दार्शनिक मान्यताओं और धार्मिक उपदेशों का उल्लेख उपलब्ध हो जाता है । हम उसी अध्याय के आधार पर उनके धर्म एवं दर्शन को संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं- पार्श्व ने लोक को पारिमाणिक नित्य माना है । उनके अनुसार लोक अनादि काल से है, यद्यपि उसमें परिवर्तन होते रहते हैं । उनके अनुसार जीव और पुद्गल दोनों ही परिवर्तनशील हैं । पुद्गल में परिवर्तन स्वाभाविक होते हैं जबकि जोव में परिवर्तन कर्म जन्य होते हैं । वे यह भी कहते हैं कि व्यक्ति हिंसा, असत्य आदि पाप कर्मों के माध्यम से अष्ट प्रकार की कर्म ग्रन्थियों का सृजन करता है । इसके विपरीत जो व्यक्ति चातुर्याम धर्म का पालन करता है, वह अष्ट प्रकार की कर्म-ग्रन्थि का सृजन नहीं करता है और फलतः नारक, देव, मनुष्य और पशु गति को प्राप्त नहीं होता है । ऋषिभाषित में उपलब्ध पार्श्व के उपदेशों से ऐसा लगता है कि जैन दर्शन को पंचास्तिकाय की अवधारणा, अष्टकर्म का सिद्धान्त और चातुर्याम धर्म का पालन ये पार्श्व की मूलभूत मान्यतायें थीं । पार्श्व के दर्शन और चिन्तन के कुछ रूप हमें पार्श्व के अनुयायियों को महावीर और उनके शिष्यों के साथ हुई परिचर्चा से प्राप्त हो जाते हैं । भगवती, उत्तराध्ययन आदि में उपलब्ध पार्श्व की परम्परा के चिन्तन के आधार पर हम कह सकते हैं कि पार्श्व की परम्परा में तप, संयम, आस्रव और निर्जरा की सुव्यवस्थित अवधारणा थी । पार्श्व की अन्य १. अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा - पृ० २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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