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२८ : जैनधर्म प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं परिवार तथा अन्तःपुर की राजमहिषियों के साथ देशना सुनने आये। उस समय अनेक नर-नारियाँ दीक्षित हई और अनेक ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया। किसी समय बेले-बेले से तपस्या करने के कारण क्षीण हुए शरीर वाले छः साध प्रभु की आज्ञा लेकर नगर में भिक्षा लेने गए। छहों मुनि बारी-बारी से दो-दो के संगाड़े से तीन बार देवकी के प्रासाद' में गोचरी लेने गये। श्राविका देवकी ने उन्हें भक्तिपूर्वक वन्दन किया और प्रेमपूर्वक विशुद्ध आहार की भिक्षा दी। मुनि-युगल की सौम्य आकृति, सदृश-वय, कान्ति और चाल-ढाल को देख उसे अपने छः पुत्रों का स्मरण हो आया' और उसके नयनों से पुत्र-स्नेह के कारण अनवरत अश्रु धाराएँ बह निकलीं ।२ मुनियों का तीसरा युगल भी जब देवकी के यहाँ भिक्षा लेने आया तो अपनी शंका का समाधान करते हुए उसने प्रश्न किया, 'भगवन्, मेरा अहो भाग्य है, आपने इस आँगन को पवित्र किया, पर अन्य गुणानुरागी सन्त सेवा को छोड़ कर आप मेरे यहाँ तीन बार कैसे पधारे ?' अंतगड सूत्र के अनुसार देवकी ने मुनि युगल को दूसरी तीसरी बार एक हो घर पर भिक्षा लेने का कारण पूछा। मुनि ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए अपने जीवन का वृत्तान्त, जो केवल ज्ञानी प्रभु द्वारा उन्हें बताया गया था वह कह सुनाया। मुनि की बात समाप्त होते ही देवकी मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी क्योंकि उसे यह विश्वास हो गया था कि ये छः मुनि उसके ही पुत्र हैं। सचेत होने पर देवकी का मातृ-हृदय सागर की तरह हिलोरे लेने लगा और उसके स्तनों से दूध की और आँखों से अश्रुओं की धारा एक साथ बहने लगी। देवकी के इस हृदयस्पर्शी करुण विलाप को सूनकर मनियों ने उसे संसार की अनित्यता तथा कर्मों की प्रधानता के बारे में समझाया। अंतगड सूत्र के अनुसार देवको अपने शंका निवारण हेतु भगवान् अरिष्टनेमि के समवसरण में गई। अरिहंत अरिष्टनेमि ने उसके मनोभावों को जानकर कहा, 'देवकी, तुमने जो छः मनि देखे हैं वे सुलसा के नहीं, तुम्हारे ही पुत्र हैं । हरिणंगमेषी देव ने इन्हें तत्काल प्रसव के समय ही सुलसा के मृत पुत्रों में बदल दिया था । अतः वे वहाँ वृद्धि पाकर दोक्षित हुए हैं।'
इस पर देवको ने हर्ष विभोर होकर छहों मुनियों को वन्दन करते १. आ० हस्तीमलजी-जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग १, पृ० १६४ -२. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुष, पर्व ८
(ख) आ० हस्तीमलजी-जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग १, पृ २०६
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