________________
प्रागैतिहासिक काल की जैन साध्वियाँ एवं विदुषी महिलाएँ : ७ सुन्दरी ने प्रभु से जब यह सुना कि स्त्री-रत्न का गौरव प्राप्त करने वाली नारी नरकगामिनी होती है, तब सुन्दरी के अन्तर्मन में वैराग्य की प्रबल भावना जागृत हुई और उसने आयंबिल की तपस्या करना शुरू कर दिया। पिता ऋषभदेव व बहन ब्राह्मी का त्यागमय जीवन उसका आदर्श बन चुका था। उसने सोचा कि राजा भरत मेरे रूप सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मुझे अपनी रानी बनाना चाहते हैं, तो मैं इस क्षणिक रूप को ही क्यों न बदल दूं (नष्ट कर दूँ) ? ऐसा सोचकर उसने कठोर व्रत करना शुरू किया। षट्खण्ड पर आधिपत्य स्थापित कर विजय पताका लहराते हुए सम्राट भरत जब "विनीता" (राजधानी) लौटे तब सुन्दरी के कृश शरीर को देखकर चकित रह गये।२ __राजमहलोंमें रहते हुए भी सुन्दरीके संयम, आयंबिल व्रतकी साधना तथा दीक्षा ग्रहण करनेकी दृढ़ भावनाको जानकर सम्राट भरतने दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दे दी साथ ही पूरे राजश्री ठाठसे दीक्षाका आयोजन किया। अन्तमें ऋषभदेवकी प्रथम शिष्य ब्राह्मोके पास जाकर सुन्दरीने भगवती दीक्षा ग्रहण की । __ सम्राट भरतके अन्य भाइयोंने राज्य त्यागकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली, बाहबलीने भी सम्राट भरतकी अधीनता अस्वीकार करते हुए प्रव्रज्या अंगीकार की। एक वर्ष तक तपस्या करनेके पश्चात् भी बाहुबलीके मनका कषाय भाव (लघु भ्रताओं को नमन करने का अहम्) दूर नहीं हआ था। अतः तीर्थंकर ऋषभदेवने बाहुबलीमें अन्तर्योति जगानेके लिए ब्राह्मी और सुन्दरीको प्रेषित किया। भगिनीद्वय ने बाहुबलीको नमन किया और कहा, "हस्तीपर आरूढ़ व्यक्तिको कभी भी केवलज्ञान की उपलब्धि नहीं होती" अतः नीचे उतरो। इस शब्दने बाहुबलोके कर्णयुगलको उद्वेलित किया, उसके चिन्तनका प्रवाह बदला, मानरूपी हाथीका अभिप्राय समझ कर उसे ज्ञान प्राप्त हुआ और विनीत भावसे प्रवजित भाइयों के पास जाने का निश्चय किया। विजयादेवी :
द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथकी माता तथा विनीता नगरीके महाराजा १. कल्पसूत्र पृ० १२४ २. आवश्यक चूणि पृ० २०९ ३. आवश्यक चूर्णि-प० २१०-२११ ४. समवायांग, १५७, तित्थोगालिय 'हस्तप्रत मुनि पुण्य विजय) ४६५, आव.
श्यक नियुक्ति ३८२, ३८७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org