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________________ ( ३६ ) नारी को उसके लिए आवश्यक सभी पक्षों की सम्पूर्ण शिक्षा दी जाती थी । यद्यपि यह सत्य है कि उस युग में स्त्री और पुरुष दोनों के लिए कर्म-प्रधान शिक्षा का ही विशेष प्रचलन था । जहाँ तक धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षा का प्रश्न है वह उन्हें भिक्षुणियों के द्वारा प्रदान की जाती थी । सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि जैन - परम्परा में भिक्षु को स्त्रियों को शिक्षा देने का अधिकार नहीं था ।' वह केवल स्त्रियों और पुरुषों की संयुक्त सभा में उपदेश दे सकता था । सामान्यतया भिक्षुणियों और गृहस्थ उपासिकाओं दोनों को ही स्थविरा भिक्षुणियों के द्वारा ही शिक्षा दी जाती थी । यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में हमें कुछ सूचनायें उपलब्ध होती हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य और उपाध्याय भी कभी-कभी उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे । व्यवहारसूत्र में उल्लेख है कि तीन वर्ष की पर्याय वाला निर्ग्रन्थ, तीस वर्ष की पर्याय वाली भिक्षुणी का उपाध्याय तथा पांच वर्ष की पर्याय वाला निर्ग्रन्थ साठ वर्ष की पर्याय वाली श्रमणी का आचार्य हो सकता था । जहाँ तक स्त्रियों के द्वारा धर्मग्रन्थों के अध्यन का प्रश्न है अति प्राचीनकाल में इस प्रकार का कोई बन्धन रहा हो, हमें ज्ञात नहीं होता । अन्तकृदृशा आदि आगम ग्रन्थों में ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं जहाँ भिक्षुणियों के द्वारा सामायिक आदि ११ अंगों का अध्ययन किया जाता था । यद्यपि आगमों में न कहीं ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख है कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं कर सकती थी और न ही ऐसा कोई विधायक सन्दर्भ उपलब्ध होता है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन करती थी । किन्तु आगमिक व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिवाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए निषिद्ध मान लिया गया । भिक्षुणियों के लिए दृष्टिवाद का निषेध करते हुए कहा गया कि स्वभाव की चंचलता, एवं बुद्धि-प्रकर्ष में कमी के कारण उसके लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषिद्ध बताया गया है । जब एक १. तम्हा उ वज्जए इन्थी.. . आघाते ण सेवि णिग्गंथे । -- सूत्रकृतांग १, ४, १, ११ २. कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठए काले सज्झायं करेत्तए निग्गंथ निस्साए । ( तथा ) पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे, सठिवास परियाए समणीए निग्गंधीए कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए उद्दिसित्ताए । -- व्यवहारसूत्र ७, १५ व २० Jain Education International ******** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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