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मात्र यही नहीं, ज्ञाताधर्मकथा और जम्बूद्वीपप्रज्ञति में स्त्री की चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है । यद्यपि यहाँ इनके नाम नहीं दिये गये हैं तथापि यह अवश्य सूचित किया गया है कि कन्याओं को इनकी शिक्षा
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जाती है । सर्वप्रथम जम्बूदीपप्रज्ञप्ति की टीका में इनका विवरण उपलब्ध होता है ।' आश्चर्यजनक यह है कि जहां ज्ञाताधर्मकथा में पुरुष की ७२ कलाओं का वर्णन है, वहीं नारी की चौंसठ कला का निर्देशमात्र है । फिर भी इतना निश्चित है कि भारतीय समाज में यह अवधारणा बन चुकी थी । ज्ञाताधर्मकथा में देवदत्ता गणिका को चौंसठ कलाओं में पण्डित, चौंसठ गणिका गुण ( काम-कला ) से उपपेत, उनतीस प्रकार से रमण करने में प्रवीण, इक्कीस रतिगुणों में प्रधान, बत्तीस पुरुषोपचार में कुशल, नवांगसूत्र प्रतिबोधित और अठारह देशी भाषाओं में विशारद कहा है । इन सूचियों को देखकर स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि स्त्रियों को उनकी प्रकृति और दायित्व के अनुसार भाषा, गणित, लेखनकला आदि के साथ-साथ स्त्रियोचित नृत्य, संगीत और ललितकलाओं तथा पाक-शास्त्र आदि में शिक्षित किया जाता था ।
यद्यपि आगम और आगमिक व्याख्याएँ इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं हैं कि ये शिक्षा उन्हें घर पर ही दी जाती थी अथवा वे गुरुकुल में जाकर इनका अध्ययन करती थीं । स्त्री-गुरुकुल के सन्दर्भ के अभाव से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही की जाती थी । सम्भवतः परिवार की प्रौढ़ महिलाएं ही उनकी शिक्षा की व्यवस्था करती थीं, किन्तु सम्पन्न परिवारों में इस हेतु विभिन्न देशों की दासियों एवं गणिकाकों की भी नियुक्ति की जाती थी, जो इन्हें इन कलाओं में पारंगत बनाती थीं । आगमिक व्याख्याओं में हमें कोई भी ऐसा सन्दर्भ उपलब्ध नहीं हुआ, जो सहशिक्षा का निर्देश करता हो । नारी के गृहस्थ जीवन सम्बन्धी इन शिक्षाओं के प्राप्त करने के अधिकार में प्रागैतिहासिक काल से लेकर आगमिक व्याख्याओं के काल तक कोई विशेष परिवर्तन हुआ हो, ऐसा भी हमें ज्ञात नहीं होता; मात्र विषयवस्तु में क्रमिक विकास हुआ होगा । यद्यपि लौकिक शिक्षा में स्त्री और पुरुष की प्रकृति एवं कार्य के आधार पर अन्तर किया गया था, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद-भाव किया जाता था ।
१. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति - शान्तिसूरीय वृत्ति, अधिकार २, ३० ।
२. ज्ञाताधर्मकथा ४ / ६ ।
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