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३०२ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं इस अवस्था में भी आप जप, ध्यान और तप आदि अपूर्व मनोयोग पूर्वक निरन्तर विधिवत् सम्पन्न करती रहीं । सं० २०१० कार्तिक शक्ल त्रयोदशी को वैराग्य की इस साक्षात् प्रतिमूर्ति ने समाधिपूर्वक देह त्याग किया। इन दो महासतियों के देह त्याग ( अन्तिम कल्याणक ) के कारण जालन्धर एक तीर्थ बन गया है। ३. महासती पन्नादेवी जी म०
आज से प्रायः एक शताब्दी पूर्व राजस्थान-मारवाड़ के सोजत नगर निवासी क्षत्रिय श्री किशनचन्द जी को एक कन्या हुई जो आगे चलकर स्थानकवासी जैन समाज की गौरवमयी साध्वी हुई । इनकी माता नानकी देवी बड़ी धर्मप्राण, सरल एवं सुशील महिला थीं। इनका प्रभाव सुकुमार कन्या पर गहरा पड़ा और वह सुन्दर तथा शीलवान हुई। कन्या का नाम पन्नाकुंवर रखा गया। उसकी एक बड़ी बहन थी तुलसाबाई और एक छोटा भाई था कान्हचन्द ।
पन्ना बचपन से ही जैन साध्वियों का सत्संग करने लगी और उत्तम कहानियाँ सुना करती थी जो उसे मिठाइयों से भी ज्यादा मीठी लगती थी । इन कथा-कहानियों के माध्यम से वह जैनधर्म की गूढ़ बातें भी सहज हो हृदयंगम कर पाई।
होनहार को कौन रोक पाया है । इधर ठाकुर परिवार में जन्मी कन्या पर जैन साध्वियों के साथ सत्संग पर रोक लगी, उधर अदृष्ट कुछ और ही खेल रच रहा था। श्री किसनचन्द के एक घनिष्ठ ओसवाल जैनी मित्र हुलास सिंह को कोई कन्या न थी । वे उसे गोद लेने का आग्रह करने लगे। उनकी पत्नी गेंदाबाई पन्नावर की माँ नानकी देवी की घनिष्ठ सहेली थीं। दोनों में काफी समय तक इस विषय पर चर्चा होती रही । अन्त में यह क्षत्रिय कन्या एक ओसवाल जैन परिवार में गोद आ गई। यहाँ उसे साधु-साध्वी संगति का खुब सुअवसर मिलने लगा। सं० १९५७ में महासती पार्वती का चातुर्मास जयपुर में था। उनके उपदेश से पन्नाकुवर के सुप्त संस्कार जाग्रत हो गये । उसका विरक्ति भाव दृढ़ होने लगा और वह दीक्षा का आग्रह करने लगी। बहुत समझाया-बुझाया गया पर वह अडिग रही । श्री भामाराम महाराज ने इस बालिका की प्रखरता से प्रभावित होकर गेंदाबाई से उसकी प्रशंसा की, उन्होंने उसके वैराग्य की अनेक प्रकार से परीक्षा ली। पन्नावर सभी परीक्षाओं में खरी उतरी। सं० १९५७ में प्रवर्तिनी पार्वती महासती जब जयपुर चातुर्मास के बाद
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