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________________ स्थानकवासी आचार्य अमरसिंहजी की परम्परा की जैन साध्वियाँ : २६५ हुई।। सद्दाजी की अनेक शिष्यायें हुईं जिनमें फत्तूजी, रत्नाजी, चेनाजी और लाधाजी मुख्य थीं। अन्त समय में महासती सद्दाजी ने तिविहार संथारा धारण कर देह का त्याग किया। साध्वीश्री लछमाजी लछमाजी का जन्म उदयपुर राज्य के तिरपाल ग्राम में सं० १९१० में हुआ था। आपके पिता का नाम रिखबचन्दजी माण्डोत और माता का नाम नन्दूबाई था। आपके दो भ्राता थे किसनाजी और वच्छराजजी । आपका पाणिग्रहण मादडा गाँव के साँकलचन्दजी चौधरी के साथ हुआ था। कुछ समय के पश्चात् पति की आकस्मिक मृत्यु हो गई। उस समय महासती रत्नाजी की शिष्या गुलाबकँवर मादडा आयीं और उनके उपदेश को सुनकर लछमाजी के मन में वैराग्य-भावना विकसित हुयी। वि० सं० १९२८ में लक्षमाजी ने गुलाबकुँवर से भगवती दीक्षा ग्रहण की। संथारा धोरण करने के ६७ दिन बाद वि० सं० १९५६ में उन्होंने प्राण त्याग दिया। लछमाजी की शिष्या परम्परा के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। परम विदुषी महासती श्री सद्दाजी की शिष्याओं में महासती श्री रत्नाजी परम विदुषी सती थीं। उनकी एक शिष्या रंभाजी हुई। रंभाजी प्रतिभा की धनी थीं। उनकी सुशिष्या महासती नवलाजी हुईं। साध्वीश्री नवलाजी नवलाजी परम विदुषी साध्वो थीं, इनकी प्रवचन शैली अत्यंत मधुर थी। जो एक बार आपके प्रवचन को सुन लेता वह आपकी त्याग, वैराग्ययुक्त वाणी से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। आपकी अनेक शिष्यायें हुईं जिनमें पाँच शिष्याओं के नाम और उनकी परम्परा उपलब्ध होती है-(१) कंसुवाजी, (२) गुमानाजी, (३) केसरकुँवरजी, (४) जसाजी और (५) अमृताजी। साध्वी कंसुवाजी कंसुवाजी महासती नवलाजी की सुशिष्या थीं। कंसुवाजी की एकमात्र . शिष्या का नाम सिरेकुंवरजी था। सिरेकुँवरजी की दो शिष्यायें-साँकरकुँवरजी और नजरकुंवरजी थीं। महासती साँकरकुंवरजी की कितनी शिष्यायें हुईं यह विदित नहीं है, नजरकुंवरजी की पाँच शिष्यायें हुईं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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