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________________ २६२ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ निर्माण कर शासन की अपूर्व सेवा की। आपका यह योगदान सदा अविस्मरणीय रहेगा। प्रमोदश्रीजी शारीरिक सोन्दर्य से बाह्य-व्यक्तित्व एवं ज्ञान की आभा से आपका आन्तरिक व्यक्तित्व देदीप्यमान था। आप फलोदी में सूरजमलजी गुलेछा की सद्धर्मपरायण पत्नी जेठी देवी की कुक्षि से वि० सं० १९५५, कार्तिक सु० ५ को जन्मी थीं। आपका नाम लक्ष्मी था। ज्ञानपंचमी को जन्मी लक्ष्मी शायद ज्ञान साधना के लिए ही अवतरित हुई थीं। युवावस्था में ही पति की मृत्यु हो जाने से लक्ष्मी की माता का झुकाव धर्म की ओर बढ़ने लगा। प० पू० गरुवर्या सिंहश्रीजी म. सा० के सम्पर्क ने उनमें एक नई चेतना, नई-स्फति और नया जीवन जीने की तीव्र आकांक्षा पैदा कर दी तथा राग के स्थान पर उनके मन में वैराग्य घोल दिया। इधर लक्ष्मी की सगाई ढाई साल की उम्र में ही, संपन्न ढढ्ढा परिवार के सपूत. श्रीलालचन्दजी से कर दी गई थी। जैसे-जैसे बड़ी होती गईं, माता के. साथ उनका भी गुरुवर्या से सम्पर्क बढ़ता गया । ९ वर्ष की उम्र होते-होते तो पूर्वजन्म के संस्कार एवं वर्तमान के वातावरण के कारण लक्ष्मी पूर्ण विरक्ता बन गईं । बुद्धि इतनी तीव्र थी कि एक बार सुन लिया तो सदा के लिए हृदयंगम हो गया। प्रतिभा इतनी प्रखर कि कैसा भी प्रश्न क्यों न. हो, तुरन्त जवाब तैयार, साहस इतना कि बड़ों-बड़ों को बेहिचक जवाब दे देती। माता से अधिक जल्दी थी उन्हें दीक्षा ग्रहण की। दादाजी, नानाजी एवं श्वसुरपक्ष तीनों की ममता का केन्द्र लक्ष्मी के लिए इतना आसान नहीं था, घर छोड़ना । किन्तु जहाँ संकल्प है, वहाँ सिद्धि है। एक सुनहरा प्रभात आ ही गया, माता-पुत्री के संयम-ग्रहण का। वि० सं० १९६४ माघ० सु० ५ को दोनों सिंहश्रीजी म० सा० का शिष्यत्व स्वीकार शासन को समर्पित हो गई। __ आप कई विषयों में निष्णात थीं किन्तु आगम-अध्ययन के प्रति आपकी विशेष रुचि एवं प्रयास रहा। यही कारण था कि आपका आगम-ज्ञान अगाध एवं मार्मिक था । आपने अपनी विलक्षण प्रतिभा एवं सतत-चिन्तन के आधार पर प्रचलित कई मान्यताओं को नया मोड़ दिया । कई बार वे शास्त्रीय चर्चा में अच्छे भले विद्वान् मुनिवरों को विषय की अतल गहराई में ले जाकर चकित कर देती थीं। आप ओजस्वी प्रवचनकार थीं, आपकी प्रवचन-शैली इतनी निराली एवं रसपूर्ण थी कि एक-एक शब्द से अमृत रस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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