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२५८ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं सं० १९२८ में फलोदी में हुआ था। वैधव्य के पश्चात् पू० गुरुवर्या सिंहश्रीजी म. सा. के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण की। आप उच्चकोटि की विद्वत्ता तो नहीं प्राप्त कर सकीं, परन्तु विनय एवं सेवा के क्षेत्र में अग्रगण्य रहीं। गुरु एवं गुरुबहिनों के प्रति आपका जो सेवा-शुश्रूषा एवं स्नेह भाव था, वह अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। अपनी गुरुबहिनों का कार्य स्वयं करके उन्हें अध्ययन का अवसर देना आपकी महानता का परिचायक है । जहाँ पारस्परिक प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है, वहाँ गुरुबहिनों को आगे बढ़ाने में प्रेमपूर्वक सहयोग करना, आपकी महान् विशिष्टता है । स्नेह के साथ आप में अनुशासन की कुशलता भी थी। स्नेह और अनुशासन, एक अच्छी संरक्षिका के दोनों ही गुण आपमें मौजूद थे। आपके इन्हीं सद्गुणों को देखकर वि० सं० १९९७ माघ वदी १३ को प्रतिनी पद से विभूषित किया गया। ___आप १०-११ शिष्याओं के गुरुपद को सुशोभित करती थीं। आपकी शिष्याओं में प० पू० विदुषीरत्ना बा० ब्र० हीराश्रीजी म० सा० "यथानामा तथागुणा' ही थीं। आपका स्वर्गवास वि० सं० २०१० भादवा वदी १३ को फलोदी में हुआ। प्रेमश्रीजी ___ आपका जन्म फलोदी निवासी किशनलालजी की धर्मपत्नी लाभूदेवी की कुक्षि से वि० सं० १९३८ की शरद-पूर्णिमा को हुआ था। आपका नाम धूलि रखा गया। धर्मसंस्कारों में पली, योग्य शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न 'धूलि' को १३ वर्ष की उम्र में, अईदानजी गुलेछा के साथ, विवाहसूत्र में बाँध दिया गया किन्तु कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। शादी को साल भर भी पूरा नहीं हुआ, पति की मृत्यु हो गई, दुख होना स्वाभाविक था। ___संयमी सिंहश्रीजी म० सा० के सुयोग एवं सदुपदेश से धूलिबाई के हृदय में सम्यग्ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुई। धीरे-धीरे चिरसंचित वैराग्यभावना को पोषण मिला । संसार में होने वाले कर्मबन्धन के चिन्तन से वे काँप उठीं। आखिर गुरुवर्याश्री के चरणों में संयम लेने की प्रबलभावना जाग उठी। सुयोग्य पात्र देखकर गुरुवर्याश्री ने भी उन्हें सहर्ष स्वीकृति दे दी। १६ वर्ष की उम्र में वि० सं० १९५४ मि० वदी १० को आपने बड़े समारोहपूर्वक दीक्षा ग्रहण की। आपके जीवन में प्राणीमात्र के प्रति प्रेम का माधुर्य छलकता देखकर गुरुवर्याश्रीजी ने आपका अन्वर्थक नाम 'प्रेमश्रीजो' रखा । तीक्ष्ण बुद्धि, प्रखर-प्रतिभा, गुरु-समर्पण, अटूट-लगन,
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