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खरतरगच्छीय प्रवर्तिनी सिंहश्रीजी म० के साध्वी- समुदाय का परिचय *
● साध्वी हेमप्रभाश्रीजी
जैन धर्म परम्परा में - मोक्ष को राह पर चलने का नारी व पुरुष को समान अधिकार है । आत्मसमानता के संगायक भगवान् महावीर ने साधना के क्षेत्र में जाति-भेद, वर्ग-भेद और रंग-भेद आदि को कभी नहीं स्वीकारा । उनका सदा उद्घोष रहा कि साधना करने का, आत्मविकास करने का, मुक्ति प्राप्त करने का सबको समान अधिकार है । आत्म- प्रधान दर्शनों में परस्पर विभेद रेखायें हो ही नहीं सकतीं । जो अनन्त-गुण-युक्त आत्मज्योति पुरुष में है, वैसी हो आत्मज्योति नारी में है । अतः साधना के क्षेत्र में पुरुष एवं नारी का कोई भेद नहीं । यही कारण है कि चतुविध संघ की स्थापना में साधु के साथ साध्वी और श्रावक के साथ श्राविका को भी उन्होंने समान स्थान दिया । नेतृत्व की दृष्टि से यद्यपि साध्वियां पीछे हैं। सामान्य स्थिति में संघ का नेतृत्व कभी उनके हाथों नहीं आया, तथापि संयम-साधना, शासन प्रभावना, विद्वत्ता आदि की दृष्टि से संघ में उनका स्थान गौरवपूर्ण रहा, और है । साहस व संकल्प की दृष्टि से देखा जाय तब तो कभी-कभी नारी-पुरुष की प्रेरणा बनने का दिव्य और भव्य सौभाग्य प्राप्त कर चुकी है । ब्राह्मी, सुन्दरी, राजीमती, याकिनी महत्तरा, नागिला आदि इसके अनुपम उदाहरण हैं । उन्होंने अपनी राह में डगमगाते साधकों को स्थिर ही नहीं किया, उन्होंने महान् त्यागी व संयमी बनाकर मुक्ति का पथिक बनाया। इतना ही नहीं, साधकों की संयम - रक्षा हेतु उन्होंने अपने जीवन का उत्सर्ग तक कर दिया । साध्वी बन्धुमती, इसका ज्वलन्त उदाहरण है ।
भगवान् महावीर के समय में विद्यमान साध्वी प्रमुखा आर्या चन्दनबालाजी से लेकर साध्वियों की यह गौरवपूर्ण परम्परा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है । इस परम्परा में कई संयमी, तपस्वी, विदुषी, कवयित्री एवं लेखिका आर्यायें हुईं और वर्तमान में हैं, जिनकी गौरवगाथा प्रकाशस्तम्भ की तरह आज भी मानव जाति का दिशा-निर्देश करती हैं ।
* 'महाश्रमणी' नामक अभिनन्दनग्रन्थ से साभार ।
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