________________
खरतरगच्छीय सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी : २५१ अवस्था में ही विधवा हो गई थीं। ज्ञानश्रीजी के उपदेश से १९७४ माघ सुदी १३ को फलोदी में दीक्षा ग्रहण की थीं। शिष्या अवश्य ही पुण्यश्रीजी की कहलाई। किन्तु सारा जीवन ज्ञानश्रीजी की सेवा में ही बीता। उदारहृदया और सेवाभाविनी थीं। सम्वत् २०१६ में जयपुर में इनका अकस्मात् ही स्वर्गवास हो गया था। (७) प्रवर्तिनी विचक्षणश्रीजी ___ जैन कोकिला प्रखर वक्त्री विदुषी विचक्षणश्रीजी का जन्म १९६९ में अमरावती में हुआ था। इनके पिता का नाम मिश्रीमलजी मूथा और माता का नाम रूपादेवी था। इनका जन्म दाखीबाई था। छोटी अवस्था में ही इनकी सगाई पन्नालाल मुणोत के साथ कर दी गई। मिश्रीमलजी के अचानक स्वर्गवास हो जाने तथा स्वर्णश्रीजी के सतत सम्पर्क में आने के कारण माता और पुत्री दोनों ही दीक्षा की इच्छुक हो गईं। जतनश्रीजी, ज्ञानश्रीजी, उपयोगश्रीजी आदि की उपस्थिति में संवत् १९८१ में माँ-बेटी दोनों को दीक्षा दी गई। रूपाबाई का नाम विज्ञानश्री और दाखाँ का नाम विचक्षणश्री रखा गया और दोनों को स्वर्णश्रीजी महाराज की शिष्या घोषित किया। इन दोनों को बड़ी दीक्षा गणनायक हरिसागरजी महाराज. ने दी और विचक्षणश्रीजी को जतनश्रीजी की शिष्या घोषित किया। - आपकी वाणी में श्रोता को मुग्ध करने का जादू था। बड़ी-बड़ी विशाल सभाओं में निर्भीकता के साथ भाषण/प्रवचन देती थीं। बड़े-बड़े जैनाचार्यों के समक्ष भी भाषण देने में कभी भी हिचकिचाई नहीं । तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य युग दिवाकर विजय बल्लभसूरिजी ने तो इनके भाषणों से मुग्ध होकर इन्हें “जैन कोकिला' से सम्बोधित किया था। प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् इस समुदाय का भार इन्हीं के कन्धों पर आ गया और इन्होंने सफलतापूर्वक निभाया। (८) प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी
गुलाबी नगरी जयपुर में ही जन्मीं, यहीं खेलीं, बड़ी हुईं, यहीं विवाहित जीवन जीया, यहीं दीक्षा ग्रहण की ।
संवत् २०३७ से प्रवर्तिनी पद को सुशोभित कर रही हैं। अभी . आपकी आज्ञा में निम्नांकित साध्वी समुदाय विचरण कर रहा है :
१. शशिप्रभाश्रीजी आदि १२ ठाणा, सज्जनश्रीजी महाराज की ही. शिष्याएँ हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org