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१६-१८वीं शताब्दी की जैन धर्म की साध्वियां एवं विदुषी महिलाएँ : २०३ अच्छा ज्ञान था तथा कई भाषाओं में ग्रन्थों की रचना एवं अनुवाद भी कर लेती थीं, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद है।
उस समय भारत पर मुसलमानों के हमले होते रहते थे तथा कई राजकन्याओं को मुसलमान विजेता पकड़ कर दासियाँ बना लेते थे। इसी कारण सती-प्रथा का भी अधिक प्रचार हुआ। ऐसे कठिन समय में भी जैन साध्वियाँ आचार्यों तथा धर्मनिष्ठ श्रावक-श्राविकाओं के संरक्षण में रहकर अपना धर्म ध्यान निडरता से करती रहती थीं। मुगल काल में साध्वियां एवं श्राविकाओं का अस्तित्व :
मुगल-राज्यकाल में उत्तर भारत में जैनधर्म के दो श्वे० सम्प्रदायों के साधु वर्ग अपने धर्म का प्रचार करते हुए दिखाई देते हैं। बुद्धिसागरजी तपागच्छ एवं साधुकीति खरतरगच्छ सम्प्रदाय के थे। दोनों जैनधर्म के. सिद्धान्तों के बारे में अकबर से दरबार में चर्चा करते रहते थे। __इसके पश्चात् हीरविजय सूरि जो अकबर के निमंत्रण पर फतेहपुर सीकरी आये थे,' उन्होंने जैनधर्म के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य के सिद्धान्तों से जैन धर्म की महत्ता पर प्रकाश डालकर अकबर को प्रभावित किया था। चम्पा श्राविका का तप :
एक समय राजधानी में एक बहुत बड़ा जुलूस निकला। दरबारियों से इस जुलस की माहिती प्राप्त करने पर पता चला कि जैन धर्म पालन करने वाली एक श्राविका ने छः महीने के उपवास किये हैं और उसके तप को बहुमान देने के लिए यह उत्सव मनाया जा रहा है । अकबर इस उत्कृष्ट तप से बहुत प्रभावित हुआ। उसकी सच्चाई स्वयं देखने के लिए उसने चम्पा श्राविका को अपने महल में रखा, जहाँ उसने लम्बी अवधि तक उपवास कर अकबर बादशाह को आश्चर्यचकित कर दिया ।
जितने दिन उसने व्रत रखा बादशाह ने राज्य में अमारि ( जीव हिंसा बन्द) का आदेश दिया। अतः अन्य धर्मों के साथ-साथ अकबर के राज्य में जैन धर्म के आचार्यों का बहत आदर था और अकबर ने जैन तीर्थ यात्रियों पर लगने वाला जजिया कर भी माफ कर दिया था।
१. बी० एन० लुनिया-अकबर महान, पृ० २६०-२६१
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