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________________ ( ८ ) सूत्रकृतांग में कहा गया है कि स्त्रियां पापकर्म नहीं करने का वचन देकर भो पुनः अपकार्य में लग जाती हैं।' इसकी टीका में टीकाकार ने - कामशास्त्र का उदाहरण देकर कहा है कि जैसे दर्पण पर पड़ी हुई छाया दुर्ग्राह्य होती है वैसे ही स्त्रियों के हृदय दुर्ग्राह्य होते हैं । पर्वत के दुर्गम मार्ग के समान ही उनके हृदय का भाव सहसा ज्ञात नहीं होता । सूत्रकृतांग वृत्ति में नारी चरित्र के विषय में कहा गया है अच्छी तरह जीती हुई, प्रसन्न की हुई और अच्छी तरह परिचित अटवी और स्त्री का विश्वास नहीं करना चाहिए | क्या इस समस्त जीवलोक में कोई अंगुलि उठाकर कह सकता है, जिसने स्त्री की कामना करके दुःख न पाया हो ? उसके स्वभाव के सम्बन्ध में यही कहा गया कि स्त्रियाँ मन से कुछ सोचती है, वचन से कुछ और कहती हैं तथा कर्म से कुछ और करती हैं । स्त्रियों का पुरुषों के प्रति व्यवहार स्त्रियाँ पुरुषों को अपने जाल में फँसाकर फिर किस प्रकार उसकी दुर्गति करती हैं उसका सुन्दर एवं सजीव चित्रण सूत्रकृतांग और उसकी वृत्ति में उपलब्ध होता है । उस चित्रण का संक्षिप्त रूप निम्न है - जब वे पुरुष पर अपना अधिकार जमा लेती हैं तो फिर उसके साथ आदेश की भाषा में बात करती हैं । वे पुरुष से बाजार जाकर अच्छेअच्छे फल, छुरी, भोजन बनाने हेतु ईंधन तथा प्रकाश करने हेतु तेल लाने को कहती है । फिर पास बुलाकर महावर आदि से पैर रंगने और शरीर में दर्द होने पर उसे मलने को कहती हैं । फिर आदेश देती हैं कि मेरे कपड़े जीर्ण हो गये हैं, नये कपड़े लाओ, तथा भोजन- पेय पदार्थादि लाओ । वह अनुरक्त पुरुष की दुर्बलता जानकर अपने लिए आभूषण, विशेष प्रकार के पुष्प, बाँसुरी तथा चिरयुवा बने रहने के लिए पौष्टिक १. एवं पिता वदित्तावि अदुवा कम्मुणा अवकरेंति । २. दुग्रहियं हृदयं यथैव वदनं यद्दर्पणान्तर्गतम्, -- सूत्रकृतांग, १/४/२३ भावः पर्वत मार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । -- सूत्रकृतांग विवरण १/४/२३, प्र० सेठ छगनलाल, मूँथा बंगलोर १९३० ३. सुट्ठवि जियासु सुट्ठवि पियासु सुट्ठवि लद्धपरासु । अडई महिलियासु य वीसंभो नेव कायव्यो । उभे अंगुली सो पुरिसो सयलंमि जीवलोयम्मि | कामं तएण नारी जेण न पत्ताइं दुक्खाई ॥ ४. वही, १/४/२ Jain Education International -वही विवरण १/४/२३ For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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