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जिस प्रकार शूकर खाद्य पदार्थ को एकान्त में ले जाकर खाता है उसी प्रकार भोग हेतु पुरुष को एकान्त में ले जाने वाली, अस्थिर स्वभाव वाली, जिस प्रकार अग्निपात्र का मुख आरम्भ में रक्त हो जाता है किन्तु अन्ततोगत्वा काला हो जाता है उसी प्रकार नारी आरम्भ में राग उत्पन्न करती है परन्तु अन्ततः उससे विरक्ति ही उत्पन्न होती है, पुरुषों के मंत्रीविनाशादि की जड़, बिना रस्सी की पाग, काष्ठरहित वन की भाँति पाप करके पाश्चात्ताप में जलती नहीं है । कुत्सित कार्य में सदैव तत्पर, अधार्मिक कृत्यों की वैतरणी, असाध्य व्याधि, वियोग पर तीव्र दुःखी न होने वाली, रोगरहित उपसर्गं या पीड़ा, रतिमान के लिए मनोभ्रम कारण, शरीरव्यापी दाह का कारण, बिना बादल बिजली के समान, बिना जल के प्रवाहमान और समुद्रवेग की भांति नियन्त्रण से परे कही गई है । तन्दुलवैचारिक की वृत्ति में इनमें से अधिकांश गुणों के सम्बन्ध में एकएक कथा भी दी गई ।'
उत्तराध्ययनचूर्णि में भी स्त्री को समुद्र की तरंग के समान चपल स्वभाव वाली, सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरुष का परित्याग कर देने वाली कहा गया है । आवश्यक भाष्य और निशीथचूर्णी में भी नारी के चपल स्वभाव और शिथिल चरित्र का उल्लेख हुआ है ।" निशीथचूर्णि में यह भी कहा गया है कि स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से हो वशीभूत की जा सकती हैं और पुरुषों को विचलित करने में सक्षम होती हैं। आचारांगचूर्णि एवं वृत्ति में उसे शीतपरिषह कहा गया है अर्थात् अनुकूल लगते हुए भी त्रासदायो होती हैं।"
१. तन्दुलवैचारिक सावचूरि सूत्र १९, (देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला) २. समुद्रवीचीचपल स्वभावाः संध्याभ्रमरेखा व मुहूर्तरागाः । स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं निपीडितालक्तकवद् त्यजन्ति । उत्तराध्ययनचूर्ण, पृ० ६५, ऋषभदेवजी,
केशरीमल संस्था रत्नपुर ( रतलाम ) १९३३ ई०
३. पगइत्ति सभाओ । स्वभावेन च इत्थी अल्पसत्वा भवति । - निशीथचूर्णि भाग ३, पृ० ५८४, आगरा, १९५७-५८ ४. सा य अप्पसत्तत्तणओ जेण वातेण वत्थमादिणा । अप्पेणावि लोभिज्जति, दाणलोभिया य अकज्जं पि करोति ॥
-- वही, भाग ३, पृ० ५८४ ॥
५. आच रांगचूर्णि पृ० ३१५ ।
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