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अध्याय सप्तम् सोलहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी की
जैन धर्म की साध्वियाँ एवं विदुषी महिलाएँ भावलक्ष्मी:
आप तपागच्छ की महत्तरा 'रत्नचूला' की शिष्या थी तथा रतनसिंह सूरि ( संसार पक्ष से भाई ) की प्रेरणा से दीक्षित हुई थीं। आप गुजरात के पोरवाड वंशीय पिता सालाहा तथा माता झबक की सुन्दरी नामक पुत्री थीं। सांसारिक सूख इन्हें आकर्षित नहीं कर सके और महत्तरा रत्नचूला के सान्निध्य में दीक्षा ग्रहण की तथा इनका नाम भावलक्ष्मी पड़ा। भावलक्ष्मी साध्वो का समय सोलहवों शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है। उदयधर्म के शिष्य ने भावलक्ष्मी धुल की रचना की। भावलक्ष्मी साध्वीजी पर जो धूल लिखी थी उसकी रचना मुकंद द्वारा की गई प्रतीत होती है। यह पुस्तक पाटण के जैन भण्डार में सुरक्षित है। यह रचना सम्वत् १५०७ ( ई० सन् १४५१ ) में लिखी गई थी। आर्यिका पल्हणश्री:
मेघचंद्रश्री की शिष्या पल्हणश्री थीं। इन्होंने भगवान् आदिनाथ की ब्राह्मी, सुन्दरी पुत्रियों की तरह आत्म-साधना के प्रतीक चारित्र-धर्म का पालन कर आर्यिका पद के उच्च स्थान को प्राप्त किया था।
पल्हणश्री अपने समय की योग्य आर्यिका थीं, जिनके सान्निध्य में अनेक श्राविकाओं ने दीक्षा ग्रहण कर धर्म-साधना की । आर्यिका पल्हणश्री ने हुमायूं के समय में एक नई गृहस्थ शिष्या परम्परा कायम की, जो काफी समय तक चलती रही। इनमें प्यारीबाई, गौरीबाई, सविरीबाई, सुरसरीबाई आदि शिष्याओं का उल्लेख सोनीपत नगर में लिखे गये एक गुटके में हुआ है। इसी परम्परा की एक शिष्या तंबोलीबाई ने चौवीस ठाणे की संचिका लिखवाई।
अब तक आचार्यों, भट्टारकों, मुनियों और विद्वानों की शिष्य परम्परा १. श्री अगरचन्दजी नाहटा द्वारा लिखित-सुधर्मा अंक १५-१०-७०, पृ० २८
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