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१९८ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं हआ। पिता स्वतन्त्र रूप से जवाहरात का धन्धा करते थे, माता धर्मपरायण और पतिव्रता महिला थीं। बाल्यकाल से ही इनकी वैराग्यवत्ति थी, परन्तु माता-पिता के आग्रह के कारण सम्पन्न वणिक ओधवजी की विलक्षण विदुषी पुत्री सुदर्शना के साथ इनका विवाह हुआ। उन्हें सूखी दाम्पत्य जीवन के फलस्वरूप एक पूर्णचन्द्र नामक पुत्ररत्न भो हुआ। तत्कालीन राजनैतिक व सामाजिक कारणों से उन्हें अहमदाबाद जाना पड़ा और वहाँ वे प्रामाणिकता से जौहरी का कार्य करने लगे। एक बार उनके घर गोचरी के लिये गये हुए ज्ञानसुन्दरजी यति ने उनके सुन्दर अक्षरों को देखा तो वे अपने शास्त्रों की प्रतिलिपि करवाने का लोभ संवरण न कर सके और कई शास्त्रों की लोकाशाह से प्रतिलिपियां करवाई।
लोकाशाह ने शास्त्र लिखने के साथ-साथ तीन जिज्ञासा वृत्ति होने के कारण शास्त्र ज्ञान भी प्राप्त कर लिया। आचारांग तथा दशवैकालिक जैसे सूत्रों में वर्णित साधु-संस्था के कठोर नियमों तथा उस युग में व्याप्त शिथिलाचार को देखकर लोकाशाह ने शिथलाचार का घोर विरोध किया तथा उस युग के श्वेताम्बर जैन समाज में एक नई चेतना प्रकट-की एवं तत्कालीन जैन समाज को मूर्तिपूजा की रूढ़ परम्परा को बदलने के लिए सोचने को मजबूर कर दिया।
उन्होंने जैन समाज के सामने मुख्यतः तीन सिद्धान्त रखे, जिनका पालन करना मुनि वर्ग के लिए अनिवार्य था, वे निम्नवत् हैं :
१. अपरिग्रह का कट्टरता से पालन करना, २. साधु वर्ग का जीवन मुख्यतः आत्मसाधनापरक होना, तथा ३. जैन चतुर्विध संघ का मठ-सत्ता आधारित न होकर जन आधारित
होना। उन्होंने और भी कई प्रचलित धर्म-विरुद्ध परम्पराओं का विरोध किया। इस युग-पुरुष ने इन सबका प्रमाण सहित खण्डन करते हुए इन १. श्रीमती स्टीवनसन्-हार्ट ऑफ जैनिज्म२. मुनि सुशीलकुमार जैन धर्म का इतिहास-पृ० २७४, २७६ ३. पण्डित दलसुख मालवणिया लोकाशाह और उनकी विचारधारा-उद,
श्री रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ, पृ० ३६६ ४. मुनि श्री सन्तबालजी-स्थानकवासी जैन परम्परा-उद० श्री रत्नमुनि
स्मृति ग्रन्थ, पृ० २१९ .
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