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दक्षिण भारत की जैन साध्वियां एवं विदुषी महिलाएँ : १८१
श्रीमती:
दक्षिण भारत के कुरूमई नामक ग्राम के करमण्डु नाम के एक धनिक वैश्य की पत्नी का नाम श्रीमती था। उसके यहाँ एक ग्वाला रहता था। एक दिन जब वह जंगल में गायें चरा रहा था, उसी समय उसने सारा जंगल दावाग्नि से जल कर भस्म होता देखा किन्तु मध्य के कुछ वृक्ष हरेभरे थे । उसे उसका कारण जानने की उत्सुकता हुई । वह उस स्थान पर गया तो उसे ज्ञात हआ कि यह किसी मनिराज का निवास स्थान है और वहाँ एक पेटी में आगम ग्रन्थ रखे हैं। उन्हें बड़े आदर से घर ले गया और कुछ दिन पश्चात् मुनि को वे सभी आगम दे दिये। उसी बालक ने मुनि के आशीर्वाद से कुन्दकुन्दाचार्य के रूप में सेठ के यहाँ जन्म लिया। पालने में झुलाते समय माता श्रीमती इस प्रकार कहती थीं
"सुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि संसार माया परिवजितोऽसि"।
माता के इस उद्गार के कारण यह बालक जैन धर्म का प्रकाण्ड पंडित एवं दिगम्बर सम्प्रदाय का महान् आचार्य हुआ।
दक्षिण भारत में जैन धर्म की नोंव को सुदृढ़ करने का श्रेय इसी आचार्य को है जिन्होंने तत्कालीन राजाओं को जैन धर्म के सिद्धान्तों से प्रभावित कर उन्हें धर्मानुरागो बनाया तथा उनकी राजमहिषियों ने भी जैन धर्म अपनाकर आत्मोन्नति की।
१. सं० कैलाशचन्द्रजी-कुन्दकुन्दप्राभृत-प्रस्तावना, पृ० ४
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