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१-७वीं सदी की जैन साध्वियों व विदुषियां : १६३
हर्षवर्धन ( ई० सन् ६४० ) के राज्य काल में भी जैन धर्म को राज्याश्रय प्राप्त था । इसी समय युग प्रधान आचार्य महाकवि मानतुंग हुए थे- जिन्होंने संघ की सुरक्षा तथा ऋषभदेव की स्तुति के लिये 'भक्तामर स्तोत्र' की रचना की । यह स्तोत्र भाव प्रधान प्रवाहमय शैली में रचा गया है । भक्तामर की रचना भाषा-भाव, कला और कल्पना के अनूठे सामञ्जस्य से अनोखी प्रतीत होती है ।
चीनी यात्री ह्वेनसांग ( ई० सन् ६२६ से ६४३) ने भारत की यात्रा की थी । उसने लिखा है कि- 'हर्षवर्धन के राज्य में जैन साधु बहुतायत से भ्रमण करते हुए दिखाई देते थे । हर्षवर्धन प्रयाग में हर पाँचवें वर्ष एक महान धार्मिक अनुष्ठान करता था जिसमें बौद्ध, जैन (निर्ग्रन्थ), शैव और वैष्णव साधुओं को निमन्त्रित करता था और भरपूर दान देकर सब को संतुष्ट करता था । वह गुणियों और विद्वानों का आदर करता था । उसका राजकवि बाण था जो हर्षचरित, कादम्बरी आदि रचनाओं के लिए सुप्रसिद्ध है' ।
हर्षवर्धन के समय में जैन धर्म को मान्यता थी लेकिन धार्मिक प्रचारप्रसार बौद्ध धर्म का अधिक हुआ। इसका मुख्य कारण बौद्ध धर्म के प्रति हर्ष का विशेष अनुराग था। राज्य में चूंकि महाकवि मानतुंग जैसे विद्वान् आचार्य थे अतः साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका संघ का भी अस्तित्व रहा होगा। हालाँकि साहित्यिक प्रमाणों से हर्षकालीन किसी विशिष्टश्रमणी अथवा श्राविका का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है ।
इस काल में उद्योतन सूरि ने लगभग ई० सन् ७७८ में कुवलयमाला ग्रन्थ की रचना की जिसका जैन धर्म में बहुत प्रचार हुआ । इन्हीं उद्योतन सूरि ने हूण नरेश तोरमाण को अपने तेज से परास्त करके उसे जैन धर्म का भक्त बनाया था। चीनी यात्री फाह्यान ने उत्तरी भारत के विविध स्थानों में जिन सम्प्रदायों और धार्मिक संस्थानों को देखा था, उनमें से अनेक जैन थे । अतः यह विश्वास किया जाता है कि उस समय उत्तरी भारत में जैन धर्म का पर्याप्त प्रचार था ।
१. मुनि सुशीलकुमार - जैन धर्म का इतिहास - पृ० १९०
२. डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन - भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० १५५
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