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________________ १४२ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ एक समय नन्द राजा का राजप्रहरी स्थूलभद्र को मंत्री पद स्वीकार करने का निमंत्रण लेकर कोशा के द्वार पर आया । स्थूलभद्र दरबार में गये किन्तु राजमंत्री का पद अस्वीकार करते हुए दीक्षित हो गये । राजगणिका कोशा को जब यह घटना विदित हुई तो वह अत्यन्त दुःखी हो गई । उसे स्थूलभद्र के साथ जीवन के राग-रंग व आमोद-प्रमोद पूर्वक बिताये गये बारह वर्ष प्रति क्षण उद्वेलित करने लगे । वह अतीत की याद में अपना शून्य-सा जीवन व्यतीत करने लगो | वर्षाऋतु के आगमन के पूर्व प्रकृति ने अपनी सुषमा चारों ओर बिखेर - दी थी । उसी समय गणिका कोशा के प्रासाद की ओर एक मुनि आते हुए दिखाई दिये । कुछ समय बाद कोशा की दासी ने आकर उसे संदेशा दिया कि एक मुनि आपके प्रासाद में चातुर्मास करने की स्वीकृति चाहते हैं । कोशा महल से नीचे आई और मुनि को देखकर स्तब्ध रह गई । उसने बारह वर्ष तक साथ रह चुके यौवन साथी स्थूलभद्र को पहचान कर हर्ष तथा ग्लानि के मिश्रित भाव से नमन करते हुए अति सुन्दर भवन . ( चित्रशाला ) में ठहरने की अनुमति दी । काम पर पूर्ण विजय हासिल करने के उद्देश्य से स्थूलभद्र ने स्वयं ही पूर्व में रह चुकी प्रेमिका (गणिका कोशा) की चित्रशाला में षड्स भोजन के मध्य रहकर चातुर्मास - व्यतीत करने की आज्ञा अपने गुरु से प्राप्त की थी । कोशा ने अपने यौवन साथी को लुभाने के लिये षड्स भोजनों का आहार तथा अपने रूप लावण्य एवं चातुर्य का कई प्रकार से प्रयोग किया परन्तु काम विजेता स्थूलभद्र पर उसका कोई असर नहीं हुआ । जब-जब कोशा ने स्थूलभद्र को साधना पथ से विचलित करने का प्रयास किया, तब-तब उनके ध्यान की एकाग्रता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई । अन्ततोगत्वा चातुर्मास व्यतीत होते-होते कोशा ने अपनी हार स्वीकार कर • ली तथा पश्चात्ताप भरे स्वर में कहने लगी, " क्षमासागर महामुनि ! मेरे सभी अपराध क्षमा कर दीजिये । असाध्य को साध्य करने वाले योगिराज - आपको मेरा कोटिशः प्रणाम" । मुनि स्थूलभद्र के उपदेश से कोशा ने श्राविका धर्म अंगीकार किया और वह पूर्ण विशुद्ध मनोभावों के साथ उनको जीवन में चरितार्थ करने लगी । चातुर्मास की समाप्ति पर सिंहगुफा, दृष्टिविष - विषधर वल्मीक और कूपमाण्डक पर चातुर्मास करने वाले तीनों मुनियों के आने पर आचार्य - सम्भूतिविजय ने कहा - " दुष्कर साधना करने वाले तपस्वियों ! तुम्हारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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