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________________ १०२ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं जीव में रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ) प्राप्ति की शक्ति से स्वभाव है । यह शक्ति प्रत्येक जीव में स्वभाव से होती है। इसीलिये वह पुरुषार्थ करके मुक्त हो जाता है । उत्तर प्रश्न क्र० ४-इसके उत्तर में भगवान् से समाधान मिला कि भवसिद्ध अर्थात् भव्य जीव ही मुक्ति प्राप्त करते हैं, अभव्य जीव नहीं। __इसी प्रश्न के स्पष्टीकरण हेतु पुनः जयन्ती ने शंका प्रस्तुत की कि भगवन् ! भव्य जीवों के मुक्त हो जाने पर क्या संसार उनसे रहित हो जायेगा? समाधान मिला कि संसार की अभव्य और भव्य राशि अनंत है। कितने ही जीव भव्य राशि में से मुक्त हो जायँ, परन्तु अनन्त सदा अक्षय ही रहता है। गणित का यह सिद्धान्त है कि अनन्त में से अनन्त घटाने पर भी अनन्त अवशिष्ट रहता है। जिस प्रकार आकाश अनन्त है उसी प्रकार जीव द्रव्यराशि भी अनन्त है । पुद्गल, परमाणु भी अनन्त हैं । यह अनन्तराशि कभी समाप्त नहीं होती। इसी सन्दर्भ में एक अन्य उदाहरण भी प्रस्तुत हैमिट्टी में घड़े बनने की, और अच्छे पाषाण में मूति बनने की योग्यता है, फिर भी कभी ऐसा नहीं हो सकता कि सब के घड़े और मूर्तियाँ बन जायें और पीछे वैसी मिट्टी और पाषाण न रहें । बीज में पकने की योग्यता है फिर भी कभी ऐसा नहीं होता कि कोई भी बीज सीझे बिना न रहे । वैसा ही भव्यों के बारे में भी समझना चाहिए। उपरोक्त मुख्य प्रश्नों के उत्तर से संतुष्ट होकर जयन्ती ने कुछ अन्य प्रश्न भी किये जो इस प्रकार हैं 'भगवन्, जीव सोता हुआ अच्छा है या जागता हुआ ? भगवन् ने उत्तर दिया कि कुछ जीव सोते हुए अच्छे और कुछ जागते अच्छे । जो लोग अधर्म के प्रेमी अधर्म के प्रचारक और अधर्माचरण में ही रंगे रहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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