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७६ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ में प्रस्थित हुई। राजा प्रद्योत भी (श्रावक) प्रभु का भक्त होने से वहाँ आकर धर्म-देशना सूनने लगे। धर्म-देशना के पश्चात् अनुकूल अवसर पाकर रानी मगावती ने अपने दीक्षित होने की मनोकांक्षा प्रभु के समक्ष प्रकट की। राजा प्रद्योत को अपना पुत्र उदयन सौंपते हुए उनसे भी आज्ञा चाही। राजा प्रद्योत की आन्तरिक भावना न होते हुए भी इतनी बड़ी परिषद् में तथा महावीर के वैराग्य के प्रभाव से उसने मृगावती को आज्ञा दी। मगावती परिव्राजिका होकर साध्वी वन्दना के सानिध्य में अपनी आत्मोन्नति में लीन हो गई।
एक समय भगवान् महावीर का अपने संघ के साथ पुनः कौशाम्बी में शुभागमन हुआ। समाज के चारों वर्ग साधु-साध्वी व श्रावक-श्राविकाएँ प्रवचन के सारभूत तथ्यों को श्रवण करने में निमग्न थे। संध्या हो चली थी। साध्वी चन्दना भी अपने साध्वी समुदाय के साथ आचारसंहिता के नियमों का ध्यान रखकर अन्धेरा होने के पूर्व ही उपाश्रय में चली गई। मृगावती प्रभु का उपदेश तन्मयता से सुन रही थी अतः चन्द्र-सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित संध्या का भान ही नहीं रहा। जब अपने आत्म-ध्यान से हटकर देखा तो चारों ओर अन्धेरा छाया हुआ था। वह घबड़ा कर शीघ्र दो-तीन अन्य साध्वियों के साथ उपाश्रय गईवहाँ आचार्या चन्दना ने उन्हें उपालम्भ देते हुए कहा-"मृगावती, तुम जैसी कुलीन स्त्रियों को रात्रि में अकेले बाहर रहना शोभा नहीं देता।" मृगावती ने अपने अपराध को स्वीकार कर लिया और आचार्या से अन्तःकरण से क्षमा मांगने लगी। वह सोचने लगी कि मेरे द्वारा आचार‘संहिता के नियमों का उल्लंघन किये जाने से आचार्या को सन्ताप हुआ । अतः वह समभाव से स्वयं की त्रुटि पर विचार करने लगी एवं सोचतेसोचते अपने हो विचारों में खो गई। शुभ भावनाएँ उदित हुईं तथा 'घातिकर्मों का क्षय होकर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
उसी रात्रि के अन्धकार में जब चन्दना जी सो रही थीं, कहीं से एक सर्प चन्दना जी के संथारे के पास से होकर जाने लगा। मगावती ने दिव्यदृष्टि से गहन अन्धकार में भी उसे देख लिया तथा आचार्या
१. (क) आवश्यक चूर्णी, प्र० १, पृ० ९१ ।
(ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुष, पर्व १०, सर्ग ८, पृ० १५४ -२. (क) गुणचन्द्र-महावीर चरित्र, प्रस्तावना ८, पत्र १७५
(ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुष, पर्व १०, सर्ग ८, पृ० १५९
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