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________________ ६४ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ सौ साधुओं के साथ ठहरे हुए थे । संयम और तप की कठोर साधना से जमाली का शरीर रोगों से घिर गया, विपुल वेदना के वशीभूत होकर उन्होंने साधुओं से कहा, "हे देवानुप्रिय ! शीघ्र बिछौना करो (संथारा) साधु बिछौना करने लगे । असाध्य पीड़ा से व्याकुल होकर जमाली बारबार साधुओं से पूछने लगे तो साधुओं ने क्रिया पूर्ण होने के पहिले ही कह दिया कि बिछौना हो गया । जब जमाली ने जाकर देखा तो कार्य पूर्ण नहीं हुआ था । यह देखकर जमाली की महावीर द्वारा उपदेशित सैद्धान्तिक धारणा हिल गई । अतः किया जा रहा है, ऐसे कार्य को, " किया जा चुका है" - ऐसा कहना असत्य है इस सिद्धान्त को उन्होंने मान्य किया तथा दूसरे साधुओं को भी यह सत्य अंगीकार करने को कहा । कुछ श्रमण इस सिद्धान्त को मानकर जमाली के साथ रहे और कुछ इसे अमान्य कर तीर्थंकर महावीर के संघ में सम्मिलित हो गये । साध्वी प्रियदर्शना ने भी इस सिद्धान्त की चर्चा सुनी तो मौलिक चिन्तक तथा सत्यशोधक साध्वी को इस सिद्धान्त में भी सत्य का आभास प्रतीत हुआ । बहुरतवाद कार्य की पूर्णता होने पर उसे पूर्णं कहना ही यथार्थ है तथा वही स्पष्ट रूप से किया हुआ कहा जा सकता है। साध्वी प्रियदर्शना ने अपनी बुद्धि व चिंतन के आधार पर स्त्री जाति सुलभ पूर्वं प्रीति स्नेह के कारण एक हजार साध्वियों के साथ जमाली के मत को स्वीकार किया' । एक समय साध्वी प्रियदर्शना अपने साध्वी संघ के साथ विहार करती हुई श्रावस्ती नगर के ढंक नामक कुम्हार के बाड़े में ठहरी हुई थीं । यह अर्हन्त धर्म के सिद्धान्तों पर विश्वास करने वाला परम श्रावक था । उसने साध्वी प्रियदर्शना का भ्रम में पड़ा देखकर विचार किया कि किसी भी उपाय से यदि मैं इन्हें ठीक राह पर ला दूँ तो श्रेयस्कर होगा । यह सोचकर उसने एक समय बाड़े में से मिट्टी के पात्रों को इकट्ठा करते समय एक जलता हुआ तिनका बहुत ही गुप्त रीति से साध्वी प्रियदर्शना के वस्त्र पर फेंका। कुछ समय पश्चात् वस्त्र को जलता हुआ देख प्रियदर्शना साध्वी बोली - "अरे श्रावक ढंक, तुम्हारे प्रमाद से मेरा वस्त्र जल गया" । इस पर ढंक ने कहा- साध्वजी ! आप असत्य बोल रही हैं । आपके मतानुसार जब पूर्ण वस्त्र (सारा) जल कर राख हो जाय तभी उसे 'जला " १. (क) विशेषावश्यकभाष्य, प. २३२५ (ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ८, पृ० १४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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