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'६२ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं त्यागवृत्ति से रहती, उन्हें किसी प्रकार कष्ट न हो, उसकी सावधानी रखती । सांसारिक सुखों की नश्वरता तथा भौतिक जीवन की क्षणभंगुरता के उपदेशों को अपने पति से आदरपूर्वक सुनती तथा आचरण में लाने का प्रयत्न करती। पति वर्द्धमान के इस कथन पर कि मृत्यु को कौन रोक सकता है, संसार असार है, विजयो पुरुष वही कहलाता है जो कि संसार के विषय भोगों से दूर रहकर आत्म-कल्याण में लीन हो जाये। यशोदा अपने पति के सुख में अपना सुख मान कर संतोष करती थी। वह कहती, "नाथ ! आपका सुख जगत् के सुख में है, मेरा सुख आपके सुख में है।" दीक्षा के समय बिदा होते हुए वर्द्धमान स्वामी से यशोदा ने कहा, "आर्यपूत्र ! शरद् ऋतु में क्षत्रिय, प्रवास व संग्राम के लिए जाते हैं, क्षत्राणियाँ अपने शूरवीर पति को कुंकुम, केशर से तिलक कर उन्हें विदा देती हैं, आप तो संसार जीतने के लिए प्रयाण कर रहे हैं अतः आपका मार्ग सरल हो, आप विजयी हों।" ___इस महान् नारी ने स्वयं के सुखों की आहुति देकर पति महावीर के मार्ग को आलोकित किया। यह नारी के मौन त्याग का अनूठा व दुर्लभ उदाहरण है।
यशोदा-मूल्यांकन ___ महावीर की सहधर्मिणी यशोदा के जीवन पर जैन साहित्य में विस्तार से प्रकाश नहीं डाला गया है। इस महान् त्यागमयी नारी के जीवन का बड़ा भाग अज्ञात ही है। वर्द्धमान महावीर भ्रातृ-स्नेह के वशीभूत होकर जब दो वर्ष गृह में अनासक्त भाव से रहे तब यशोदा ने उनको किस प्रकार सेवा को ? महावीर की प्रव्रज्या के समय यशोदा को क्या मनोदशा थी? पति के दीक्षित होने के पश्चात् उन्होंने अपना जीवन कैसे व किन मनोभावनाओं के बीच व्यतीत किया ? इस सबका विस्तृत वर्णन किसी भी प्रामाणिक ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं हो पाया । ये सब प्रश्न पहेली बनकर जिज्ञासु के सामने उपस्थित हो जाते हैं । यशोदा के मनोभावों और अनुभूतियों की केवल कल्पना ही की जा सकती है, उनका मानसिक चिन्तन व मनोभावों का चित्रण केवल कल्पना के विषय ही रह जाते हैं। इस आदर्श नारी ने यौवन में पति की त्यागवृत्ति में सहयोग दिया तथा शेष जीवन भी भोगों से दूर आत्मकल्याण में व्यतीत किया ऐसा प्रतीत होता है।
१. जयभिक्खु-भगवान् महावीर पृ० ३३
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