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________________ ६८ जैन धर्म में अहिंसा कष्टकर होते हैं।' सबको अपना जीवन प्रिय होता है। उसी तरह एक दिन उन्होंने बहुत से लड़कों को एक साँप को मारते हुए देखा तो उन्हें समझाते हुए कहा कि जो सुख चाहनेवाले प्राणियों को अपने सुख के लिए मारते हैं, वे मरने के पश्चात भी सुखी नहीं होते। इसके विपरीत जो अन्य प्राणियों को अपने सुख के लिए नहीं मारता है, वह मरकर सुख प्राप्त करता है । अतः न किसी को मारना चाहिए और न मारने के लिए प्रेरित करना चाहिए । जो व्यक्ति अहिंसापूर्ण संयमित जीवन यापन करता ह उसे अच्युत पद की प्राप्ति होती है जिसे प्राप्त कर वह कभी भी दुःखी नहीं होता। जो प्राणियों की हिंसा नहीं करता वह अहिंसक ही आर्य कहला सकता है। हिंसा करने वाला कभी भी आर्य कहलाने के योग्य नहीं होता और जो चर-अचर किसी भी प्राणी का घात नहीं करता, उन्हें कष्ट नहीं पहुंचाता या मारने के लिए प्रेरणा नहीं देता यानी जो किसी भी प्रकार की हिंसा से विरत है, वही ब्राह्मण है। इस प्रकार 'बुद्ध-धर्म-शासन' में रहता हुआ १. सब्बे तसन्ति दण्डस्स सब्बे भायन्ति मच्चुनो। अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ||१॥धम्मपद, दण्डवग्गो। सब्बे तसन्ति दण्डस्स सब्बेसं जीवितं पियं ।। अत्तानं उपमं कत्वा न हनेयय न घातये ॥२॥ " " " सुखकामानि भूतानि यो दण्डेन विहिंसति । अत्तनो सुखमेसानो पेच्च सो न लभते सुखं ॥३॥ सुखकामानि भूतानि यो दण्डेन न हिंसति ।। प्रत्तनो सुखमेसानो पेच्च सो लभते सुखं ॥४॥ " " " ३. अहिंसका ये सुनयो निच्चं कायेन संयुता । ते यन्ति अच्चुतं ठानं यत्थ गन्त्वा न सोचरे ॥५॥ धम्मपद, कोधवग्गो। ४. न तेन परियो होति येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सब्बपाणानं अरियोति पवुच्चति ॥१५॥ धम्मपद, धम्मट्ठवग्गो। ५. निधाय दण्डं भूतेषु तसेसु थावरेस च । यो न हन्ति न धातेति तमहं ब्रमि ब्राह्मणं ॥२३॥ धम्मपद, ब्राह्मणवग्गो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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