________________
जनेतर परम्पराओं में अहिंसा
६७ रक्षा का ध्यान रखे। वह खड़े रहकर, चलकर, बैठकर, सोकर, जागकर सब तरह से सभी प्राणियों को एक समान देखे, प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखे । यही "ब्रह्मविहार" है और इसे ही अपनाकर व्यक्ति काम, तृष्णा आदि से ऊपर उठकर जन्म-मरण के बन्धन से छुट जाता है, यानी निर्वाण प्राप्त कर लेता है।'
धम्मपद-जेतवन में विहार करते समय एक दिन बुद्ध ने छः वर्गीय भिक्षुओं के द्वारा सत्रह वर्गीय भिक्षुओं का पीटा जाना देखा, तब उन भिक्षओं को समझाते हुए उन्होंने कहा कि भिक्षओ! सब को अपने ही समान समझो, क्योंकि दण्ड और मृत्यु सबके लिए १. करणीयमत्थकुसलेन यं तं सन्तं पदं अमिसमेच्च ।
सक्को उजू च सूजू च सुवचो चस्स मुदु अनतिमानी ॥१॥ सन्तुस्सको च सुभरो च अप्पकिच्चो च सल्लहुकवुत्ति। सन्तिन्द्रियो च निपको च अप्पगब्भो कुलेसु अननुगिद्धो ॥२॥ न च खुदं समाचरे किञ्चि येन विजू परे उपवदेययुं ।। सुखिनो वा खेमिनो होन्तु सब्बे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता ॥३॥ ये केचि पाणभूतस्थि तसा वा थावरा वा अनवसेसा। दीघा वा ये महन्ता वा मज्झिमा रस्सकाऽणुकथूला ॥४॥ दिट्ठा वा येव अद्दिट्ठा ये च दूरे वसन्ति अविदूरे। भूता वा संभवेसी वा सब्बे सत्ता भवन्ति सुखितत्ता ।।५।। न परो परं निकुब्बेथ नातिमोथ कत्थचि नं कश्चि । ब्यारोसना पटिघसा नामञ्जस्स दुक्खमिच्छेय्य ।।६।। माता यथा नियं पुत्तं प्रायुसा एकपुत्तमनुरक्खे ।। एवंऽपि सब्बभूतेसु मानसं भावये अपरिमारणं ॥७॥ मत्तं च सब्बलोकस्मिं मानसं भावये अपरिमाणं। उद्धं अधो च तिरियं च असंबाधं अवेरं असपत्तं ॥८॥ तिळं चरं निसिन्नो वा सयानो वा यावतस्स विगतमिद्धो। एतं सतिं अधिट्टेय्य ब्रह्ममेतं विहारं इधमाहु ।।६।। दिठिं च अनुपगम्म सोलवा दस्सनेन संपन्नो। कामेसु विनेय्य गेधं न हि जातु गब्भसेय्यं पुनरेतीति ॥१०॥
सुत्तनिपात, उरगवग्ग, मेत्तसुत्त ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org