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जैनेतर परम्पराम्रों में अहिंसा
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अप्रमाद - रजकण और महापृथ्वी के बीच के अन्तर को दिखाते हुए बुद्ध भिक्षुओं को उपदेश देते हैं कि मनुष्य को अपनी सत्ता को रजकण तथा संसार की अन्य सत्ताओं को महापृथ्वी के समान समझकर अपने में 'प्रमाद' नहीं लाना चाहिए । भिक्षुओं को चाहिए कि वे सदा अप्रमत्त होकर विहार करें ( क्योंकि प्रमाद ही सब अनिष्टों की जड़ है ) ।' इतना ही नहीं, संयुक्त निकाय के दूसरे भाग में 'अप्रमाद' की व्यापकता एवं महानता बताते हुए वे कहते हैं
'भिक्षुओ ! जितने जंगम प्राणी हैं सभी के पैर हाथी के पैर में चले आते हैं। बड़ा होने में हाथी का पैर सभी पैरों में अग्र समझा जाता है । भिक्षुओ ! वैसे ही जितने कुशल धर्म हैं सभी का आधार = मूल अश्माद ही है । अप्रमाद उन धर्मों में अग्र समझा जाता है" ( पद सुत्त - ४३. ५. २ ) ।
“भिक्षुओ ! कूटागार के जितने धरण हैं सभी कूट की ओर झुके होते हैं । कूट ही उनमें अग्र समझा जाता है । भिक्षुओ ! वैसे ही जितने कुशल धर्म हैं २ ( ४३. ५. ३ ) ।
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तरह से सुरक्षित रखती है । जिस प्रकार, और कम स्त्रियाँ हैं, उस कुल को अथवा जैसे स्वतः तीक्ष्ण बछ को होता, ठीक वैसे ही जिस व्यक्ति
मैत्री - भावना - मैत्री भावना में जो शक्ति है, वह व्यक्ति को सब जिस कुल में अधिक पुरुष चोर डाकुओ से भय नहीं होता, किसी छेदन - भेदन का भय नहीं मंत्री - भावना चैतन्य है, जगी
में
है उसे किसी भी स्थान पर और किसी भी प्राणी से डर नहीं होता । अतः बुद्ध कहते हैं
१. संयुक्त निकाय, पहला भाग, पृ० ३०७.
२. संयुक्त निकाय, दूसरा भाग, पृ० ६४०-६४१.
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