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जैन धर्म में अहिंसा के लिए होता। भिक्षुओ ! वह सत्व इसी राजगृह में गौहत्या करने वाला था। इस पाप के फलस्वरूप वह........." लाखों वर्ष तक नरक में पचता रहा। उस कर्म के अवसान में उसने ऐसा आत्मभाव प्रतिलाभ किया है।''
इस प्रकार 'गोघातक सत्त' में गाय मारने वाले, पिण्डसाकुणीसुत्त में चिडिमार, निच्छवोरभिसुत्त में भेड़ों को मारने वाले कसाई, असिसूकरिकसुत्त में सूअर मारनेवाले कसाई, सत्तिमागवीसुत्त में मृगमार ( = बहेलिया ), उसकारणिकसुत्त में अन्यायी न्यायाधीश, सूचिसारथीसुत्त में सारथी, सूचकसुता में सूचक तथा ग्रामकूटक सुत्ता में गांव के दुष्ट पंच के वर्णन हैं। यानी ये सभी हिंसक हैं और हिंसा के परिणाम स्वरूप इन्हें अत्यन्त कष्ट भोगना पड़ता है।
यज्ञ-जहां तक यज्ञ की बात है, बुद्ध ने हिंसायुक्त यज्ञ का विरोध किया है और हिंसारहित यज्ञ को हितकर एवं उचित बताया है। जब उन्हें राजा प्रसेनजित के यहां होने वाले हिंसायुक्त यज्ञ की खबर भिक्षओं के द्वारा मिलती है तो वे कहते हैं कि यज्ञ में हिंसा करने के फल अच्छे नहीं होते महर्षि लोग, जो सुमार्ग पर चलने वाले हैं वैसे यज्ञों के लिए निर्देश करते हैं, जिनमें भेड़, बकरे और गायें आदि नहीं कटते । २ १. संयुत्त निकाय, पहला भाग, पृष्ठ ३०१-३०२. २. अश्व-मेध, पुरुष-मेध, सम्यक् पाश, वाजपेय,
निरर्गल और ऐसी ही बड़ी-बड़ी करामातें, सभी का अच्छा फल नहीं होता है । भेड़, बकरे और गायें तरह-तरह के जहां मारे जाते हैं, सुमार्गपर आरूढ़ महर्षि लोग ऐसे यज्ञ नहीं बताते हैं । जिस यज्ञ में ऐसी तूलें नहीं होती हैं, सदा अनुकूल यज्ञ करते है, भेड़, बकरे और गौवें तरह-तरह के जहां नहीं मारे जाते हैं, सुमार्ग पर आरूढ़ महर्षि लोग ऐसे ही यज्ञ बताते हैं, बुद्धिमान पुरुष ऐसा ही यज्ञ करे, इस यज्ञ का महाफल है, इस यज्ञ करनेवाले का कल्याण होता है, अहित नहीं, यह यज्ञ महान होता है, देवता प्रसन्न होते हैं। संयुत्त निकाय, प्रथम भाग, पृ० ७२.
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