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जैनेतर परम्पराओं में हिसा
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भारत और पुराणों में तो अहिंसा का सिद्धान्त पूर्ण विकसित मालूम पड़ता है । इनमें हिंसायुक्त यज्ञ की काफी भत्सर्ना की गई है किन्तु परिस्थिति विशेष जैसे, आत्म-रक्षा, समाज - रक्षा, राष्ट्र- रक्षा आदि के लिए छूट भी मिली है, यानी हिंसा को क्षम्य समझा गया है । न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, अद्वैत वेदान्त आदि ब्राह्मण दर्शनों में 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' को अपनाया है लेकिन सांख्य ने इसकी कड़ी आलोचना की है, हिंसापूर्ण यज्ञ को इसने अशुद्ध माना है । वैष्णव परम्परा के रामानुज एवं वल्लभ आदि आचार्यों ने हिंसायुक्त होने पर भी वैदिक यज्ञादि को शुद्ध और दोषरहित माना है. यद्यपि अन्य प्रकार की हिंसा को घृणित एवं त्याज्य बताया है ।
बौद्ध परम्परा :
बौद्ध परम्परा की मूलभित्ति बौद्ध धर्म या बौद्ध दर्शन है, जिसके जन्मदाता गौतम बुद्ध थे । उनका जन्म ई० पूर्व ६ठीं शती में हुआ था । वह आध्यात्मिक असंतोष या असंतुलन का युग था । उस समय अध्यात्म-चिन्तन से ज्यादा वैदिक यज्ञों पर और उनके विधि-विधानों पर बल दिया जा रहा था । देवता की भक्ति के बदले धर्मशास्त्रों के प्रति ज्यादा झुकाव था । जो व्यक्ति यज्ञादि के नियमों में प्रवीण होता था उसका कर्म-काण्ड के क्षेत्र में या यों कहें कि धर्म के क्षेत्र में एकाधिपत्य सा होता था । अतः इनकी प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्ध धर्म का उदय हुआ जिसने वेद, यज्ञादि कर्म-काण्ड तथा हिंसा का पूर्णरूपेण विरोध किया । "
बौद्ध धर्म के दो रूप मिलते हैं : १ – शुद्ध धार्मिक रूप, जिसमें आचार मागं को बहुत ही सरल ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास है, और २ - दार्शनिक रूप, जिसमें आचार की शिक्षा की गहराई में रहने वाले, सूक्ष्म दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन एवं विकास किया गया है । इसके दो आधार स्तम्भ हैंसुत्तपिटक तथा विनयपिटक । 'सुत्तपिटक' में दीघनिकाय, मज्झिम
1. History of Philosophy - Eastern and Western (Ed. Radhakrishnan), p. 154.
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