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________________ ५४ जैन धर्म में अहिंसा तो पूरी श्रुति को कहा जाता है क्योंकि यह सुनी गई है। लेकिन ऐसा समझने से तो प्रकृति और पुरुष का विवेकज्ञान जो वेदों पर ही आधारित है, दोषपूर्ण हो जायगा। अतः यद्यपि 'आनुश्रविक' का सामान्य अर्थ पूर्ण श्रुति से है, यहाँ पर सिर्फ कर्मकाण्ड यानी वैदिक यज्ञादि ही समझना चाहिए। वैदिक यज्ञों के विषय में भाष्यकार ने कहा है- 'स्वल्पः संकरः, सपरिहारः' यानी यज्ञ में जो संकर दोष है, वह स्वल्प है, कम मात्रा में है; जिसका परिहार हो सकता है, यदि परिहार की आवश्यकता होती है । इसका मतलब है कि अविशुद्धि भी अवश्य है । इसके अलावा वैदिक विचारधारा एक ओर तो प्रस्तुत करती है'न हिस्यात् सर्वभूतानि'---किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए, और दूसरी ओर कहती है-'अग्निषोमीयं पशुमालभेत'अग्नि और सोम के लिए पशु ले आओ। ये दोनों बातें विरोधात्मक हैं। किन्तु मीमांसकों का कथन है कि 'न हिस्यात् सर्वभूतानि' सामान्य नियम है और 'अग्निषोमीयं पशुमालभेत' विशेष नियम है और इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। क्योंकि जहाँ पर विशेष नियम लागू होता है वहाँ पर सामान्य नियम लागू नहीं होता। यदि विरोध होता तो विशेष नियम सामान्य को प्रभावित करता। किन्तु ऐसा कहना मीमांसकों के पक्ष में सहायक नहीं हो सकता। क्योंकि जहां तक सिर्फ अविरोध की बात है तो इन दोनों नियमों के भी दो-दो अर्थ हो सकते हैं और दोनों में कोई विरोध नहीं हो सकता, जैसे___'न हिस्यात् सर्वभूतानि' सिर्फ यही व्यक्त करता है कि हिंसा अनर्थकारिणी है, यह ऐसा नहीं कहता कि हिंसा यज्ञ के लिए अनुपयोगी है। ठीक इसी तरह 'अग्निषोमीयं पशुमालभेत' इतना बताता है कि हिंसा यज्ञ के लिए उपयोगी है, न कि यह अनर्थकारिणी है। ऐसा होने पर दोनों ही वाक्यों के दो-दो अर्थ होंगेन हिंस्यात् सर्वभूतानि-१. हिंसा अनर्थकारिणी है । २. हिंसा यज्ञ के लिए अनुपयोगी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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