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________________ जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा धर्म का प्रमुख अंग बन गया है, जैसा कि हमलोगों ने महाभारत में देखा है । कहीं-कहीं यह अपने में सभी धर्मों को समाविष्ट करती हुई दीखती है और शुकदेव जी ने जो समयानुसार धर्म या अधर्म की शक्ति की वद्धि या क्षय का जो प्रसंग उपस्थित किया है उससे विभिन्न युगों में हिंसा अथवा अहिंसा की गति-विधि का एक अन्दाज-सा लगता है। ब्राह्मण दर्शन : उपनिषदों में प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धान्तों का सारस्वरूप 'तत्त्वमसि' मंत्र बहुत ही प्रसिद्ध है। इसका अर्थ है, त्वं यानी जीव और तत् यानी ब्रह्म, एक है, अर्थात् दोनों में कोई भिन्नता नहीं है। इस सिद्धान्त के विवेचन तथा स्पष्टीकरण के लिए औपनिषदिक काल के बाद विभिन्न दार्शनिकों ने प्रयास किए जिनके फलस्वरूप अन्य मतों के जन्म हुए, जैसे सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा तथा वेदान्त जिन्हें षड्दर्शन कहा जाता है। राधाकृष्णन् ने कहा है _ "भारत में हम बौद्धकाल में दार्शनिक चिन्तन की एक महती लहर उमड़ती हई पाते हैं . .... ... ... ...। बौद्ध तथा जैन धर्मों के विप्लव ने, वह विप्लव अपने आप में चाहे जैसा भी था, भारतीय विचारधारा के क्षेत्र में एक विशेष ऐतिहासिक युग का निर्माण किया............। वास्तविक तथा जिज्ञासाभाव से निकला हुआ संशयवाद विश्वास को उसकी स्वाभाविक नींवों पर जमाने में सहायक होता है। नींव को अधिक गहराई में डालने की आवश्यकता का ही परिणाम महान् दार्शनिक हलचल के रूप में प्रकट हुआ, जिसने छः दर्शनों को जन्म दिया जिनमें काव्य तथा धर्म का स्थान विश्लेषण और शुष्क समीक्षा ने ले लिया ।" इससे लगता है कि षड्दर्शनों का जन्म ई० पूर्व छठी शती में ही हुआ। इन दर्शनों में सिर्फ तात्त्विक विवेचन ही नहीं बल्कि ज्ञान-मीमांसा एवं नैतिक विचार-विमर्श को भी स्थान मिला है, १. भारतीय दर्शन-राधाकृष्णन्, भाग २, हि० अनु०-नन्दकिशोर गोभिल, पृ० १५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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