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________________ ५० जैन धर्म में अहिंसा इसके ( भा० पु० ) द्वितीय खण्ड में शुकदेव जी ने धर्म और अधर्म के चरण या रूप का वर्णन करते हए यह भी बताया है कि किस प्रकार समय-परिवर्तन के अनुसार धर्म और अधर्म के बल घटते-बढ़ते रहते हैं। इनके अनुसार सतयुग में धर्म के चार चरण थे-सत्य, दया, तप और दान । इसी तरह अधर्म के भी चार चरण थे-असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह। त्रेतायुग में धर्म का चतुर्थांश समाप्त हो गया फिर भी अत्यन्त हिंसा और लम्पटता न थी। द्वापर में हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष अधर्म के चार चरणों की प्रबलता हो गई जिनकी वजह से धर्म के चरण-तपस्था, सत्य, दया और दान अर्धक्षीण हो गए और कलियुग में अधर्म के चारों चरण अपने बल की पराकाष्ठा पर पहुंच गए हैं।' इस प्रकार पुराणों को देखने से पता लगता है कि इनमें भी अहिंसा का सिद्धान्त पूर्ण विकसित एवं समृद्ध है तथा इसे संन्यासी और ब्राह्मणों तक ही सीमित न रखकर सभी वर्गों के लिए आवश्यक कहा गया है, यह मुनिव्रत ही सिर्फ न रहकर साधारण १. कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पात्तञ्जनैधृतः । सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोनूप ॥१८॥ सन्तुष्टा: करुणा मैत्राः शान्ता दान्तास्तितिक्षवः । आत्मारामा: समदृश: प्रायशः श्रमणा जनाः ॥१६॥ त्रेतायां धर्मपादानां तुर्यांशो हीयते शनैः । अधर्मपादैरनृतहिंसासन्तोषविग्रहैः ॥२०॥ तदा क्रियातपोनिष्ठा नातिहिंस्रा न लम्पटाः । त्रैवर्गिकास्त्रयी वृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा नप ।।२१।। तपस्सत्यदयादानेष्वधं ह्रसति द्वापरे । हिंसातुष्ट्यनृतद्वेषैर्धर्मस्याधर्मलक्षणः ॥२२॥ यशस्विनो महाशाला: स्वाध्यायाध्ययने रताः । पाढ्या: कुटुम्बिनो हृष्टा वर्णा: क्षद्विजोत्तराः ॥२॥ कली तु धर्महेतूनां तुर्यांशोऽधर्महेतुभिः । एधमानैः क्षीयमाणो ह्यन्ते सोऽपि विनक्ष्यति ॥२४॥ भागवतपुराण, द्वितीय खण्ड, स्कन्ध १२, प्र० ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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