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________________ ४७ जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा नारदपुराण-इस पुराण में महर्षि भृगु के द्वारा राजा भगीरथ को दिया गया उपदेश अहिंसा-सम्बन्धी विचार को काफी दढ़ बनाता है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार धर्म का विरोध न हो उसी प्रकार धर्मपरायण व्यक्तियों के कर्म होने चाहिए। सज्जन पुरुषों के अनुसार वे ही सत्य वचन हैं जिनसे किसी का विरोध न हो, जिनसे किसी भी प्राणी को कष्ट न हो। हे राजन ! यह अहिंसा का रूप है; इसके द्वारा सभी कमानाएँ पूर्ण होती हैं।' इसके अलावा अन्यत्र यह भी कहा गया है कि मन, वचन और कर्म से बिना किसी को कष्ट पहुँचाये विष्ण की पूजा करनी चाहिए। योगी किसी भी मार्ग पर चले, यानी कर्म या ज्ञान योग के पथ पर या और किसी मार्ग पर लेकिन सभी हालत में उसे अहिंसा, सत्य, अक्रोध, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, डाह का त्याग और दया का पालन करना आदि इसके लिए परमावश्यक हैं। क्योंकि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अक्रोध और अनसूया ये सब यम के संक्षिप्त रूप हैं और अहिंसा जिसका अर्थ होता है-किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना, योग में सिद्धि दिलाने वाली हैं। १. धर्माविरोधतो वाच्यं तद्धि धर्मपरायणैः । देशकालादिविज्ञाय स्वयमस्या विरोधतः ॥२४॥ यद्वचः प्रोच्यते सद्भिस्तत्सत्यमभिधीयते । सर्वेषामेव जंतूनामक्लेशजननं हि तत् ॥२५॥ अहिंसा सा नृप प्रोक्ता सर्वकामप्रदायिनी। कर्मकार्यसहायत्वमकार्य परिपन्थता ।।२६।। नारदपुराण, अ० १६. २. कर्मणा मनसा वाचा परपीडा पराङ्मुखः । तस्मात्सर्वगतं विष्णुं पूजयेद् भक्तिसंयुतः ॥३४।। अहिंसा सत्यमक्रोधो ब्रह्मचर्यापरिग्रही। अनीp च दया चैव योगयोरुभयोसमाः ॥३५॥ अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यपरिग्रही । प्रक्रोधश्चानसूया च प्रोक्ता: संक्षेपतो यमाः ।।७।। सर्वेषामेव भूतानामक्लेशजननं हि यत् । अहिंसा कथिता सद्भिर्योगसिद्धिप्रदायिनी ।।७६।। नारदपुराण, अ० ३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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