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________________ ४६ जैन धर्म में अहिंसा वचन और कर्म से अहिंसा व्रत को पालने वाले भी मुक्त हो जाते हैं। जो जीव हिंसा से रहित, शीलवान तथा दयालु हैं और जिनकी दष्टि शत्र और मित्र के लिए बराबर है, वे कर्म-बन्धन से छुटकारा पा जाते हैं। सब प्राणियों पर दया दिखाने वाले, सब में विश्वास रखनेवाले, सब तरह की हिंसा से विरक्त रहनेवाले, एकान्त में भी परायी स्त्री की कामना न करनेवाले और मन से भी किसी जीव की हिंसा न करनेवाले लोग स्वर्गगामी होते हैं।' १. प्रलयोत्पत्तितत्त्वज्ञाः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः । वीतरागा: विमुच्यन्ते पुरुषाः कर्मबन्धनैः ॥६॥ कर्मणा मनसा वाचा येन हिंसन्ति किंचन । ये न मज्जन्ति कस्मिंश्चित्ते न बघ्नन्ति कर्मभिः ।।७।। प्राणातिपाताद्विरता: शीलवन्तो दयान्विताः । तुल्यद्वेष्य प्रियादान्ता मुच्यन्ते कर्मबन्धनैः ।।८॥ सर्वभूतदयावन्तो विश्वास्या: सर्वजन्तुषु । त्यक्तहिंस्रसमाचारास्ते नरा: स्वर्गगामिनः ।।६।। परस्वनिर्ममा नित्यं परदारा विजिता: । धर्मलब्धार्थभोक्तारस्ते नरा: स्वर्गगामिनः ॥१०॥ अरण्ये विजने न्यस्तं परस्वं दृश्यते यदा । मनसाऽपि न गृह्णन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः ॥३०॥ तथैव परदारान्ये कामवृत्ता रहोगताः । मनसाऽपि न हिंसन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः ॥३१॥ एवं भूतो नरो देवि निरयं प्रतिपद्यते ।। विपरीतस्तु धर्मात्मा स्वरूपेणाभिजायते ॥४६॥ निरयं याति हिंसात्मा याति स्वर्गमहिंसकः । यातनां निरये रौद्रां सकृच्छां लभते नरः ॥५०॥ शुभेन कर्मणा देवि प्राणिघातविजितः । निक्षिप्तशस्त्रो निर्दण्डो न हिंसति कदाचन ॥५३।। न घातयति नो हन्ति घ्नन्तं नैवानुमोदते । सर्वभूतेषु सस्नेहो यथाऽऽत्मनि तथा परे ॥५४॥ ईदृशः पुरुषो नित्यं देवि देवत्वमश्नुते । उपपन्नान्सुखान्भोगान्सदाऽश्नाति सुदायतुः ॥५५॥ ब्र० पु०, म. २२४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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